67. दौलत खान से पुर्न मिलन (सुलतान
नगर, पँजाब)
श्री गुरू नानक देव जी बठिण्डा नगर से सुलतानपुर पहुँचे। बेबे
बहिन नानकी आप जी को बहुत याद कर रही थी अतः वह कुछ दिनों से आपके दर्शनों के लिए
अधीर रहने लगी थी, कि अकस्मात उनको उनकी दासी तुलसां ने जाकर सूचना दी कि उन के
प्यारे भैया नगर में आ चुके हैं। बस कुछ ही समय में उनके पास पहुँचने ही वाले हैं।
बहन नानकी जी की खुशी का ठिकाना न रहा, वह अपने भैया के स्वागत के लिए भोजन तैयार
करने में व्यस्त हो गई। तभी द्वार पर भाई मरदाना जी की रबाब के सँगीत में सत करतार
की मीठी ध्वनि सुनाई दी। बेबे, बहिन नानकी भागकर घर से बाहर निकली और अपने भइया को
गले लगाया तथा कुशलक्षेम पूछी और कहा, लगभग 5 वर्ष के पश्चात् आप वापस लौट रहे हैं।
इस बार किस किस तरफ गए थे ? उत्तर में गुरुदेव ने कहा, हम दक्षिण भारत तथा अन्य
पड़ोसी देशों में भ्रमण करके आ रहे हैं। तभी तुलसां ने चारपाई बिछा दी उसपर गुरुदेव
को बैठाकर, उनके चरण धुलवाए और बहन जी ने भोजन परोस दिया। तुलसां पँखा करने लगी।
बेबे नानकी जी ने घर के समाचार बताते हुए कहा, अब बच्चे बड़े हो गए हैं उनके विवाह
करने हैं यह सब साँसारिक कार्य आप अपनी देखरेख में करो। गुरुदेव ने सहमति प्रकट की
और कहा, करतार भली करेगा, सब कुछ समय अनुसार यथापूवर्क हो जाएगा। परन्तु बेबे कहने
लगी, आपका बड़ा लड़का, श्री चन्द तो विवाह करने से इन्कार कर रहा है। उसका कहना है कि
वह आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करेगा तथा समस्त जीवन केवल नाम स्मरण में व्यतीत
करेगा। इस पर गुरुदेव ने उत्तर दिया, मैं उसकी आत्मिक अवस्था देखकर ही कोई निर्णय
करूँगा। तभी भइया जयराम जी अपने कार्यालय से लौट कर आए, उन्होंने नानक जी को हृदय
से लगाया। किन्तु नानक जी ने उनके चरण स्पर्श किये। इत्फाक से उन दिनों नवाब दौलत
खान लाहौर से सुलतानपुर, किसी काम से आए हुए थे। उनको लाहौर की सूबेदारी (राज्यपाल)
मिली हुई थी। गुरुदेव का सुलतानपुर में आना जब उनको मालूम हुआ तो वह गुरुदेव से
मिलने आए। उन्होंने गुरुदेव से उनकी लम्बी यात्राओं के विषय में विस्तार से जानकारी
प्राप्त की और बहुत आँनदित हुए। उन्होंने तभी पूछा, अब आप अपना मुकाम कहाँ रखने का
विचार रखते हैं ? गुरुदेव ने उत्तर दिया मुकाम, वह बनाता है जो इस सँसार में स्थिर
रह सकता हो। बाकी सब जगत चलायमान है, अल्लाह के अतिरिक्त सब नाशवान तथा मिथ्या है।
अतः जीव का मुकाम तो सारा सँसार है:
अलाहु अलखु अगंमु कादरु करणहार करीमु ।
सब दुनी आवण जावणी मुकामु एकु रहीमु ।।
मुकामु तिस नो आखीऐ जिसु सिसि न होवी लेखु ।
असमानु धरती चलसी मुकामु ओही एकु ।।
दिन रवि चलै निसि ससि चलै तारिका लख पलोइ ।
मुकामु ओही एकु है नानका सचु बुगोइ ।। राग-सिरी राग, अंग 64
अर्थः परमात्मा अदृश्य, अखोज, अपहुँच, सर्वशक्तिमान और दरियादिल
सृजनहार है। सारी दूनियाँ आने-जाने के अधीन है। भाव यह है कि हम जन्म लेते हैं और
मर जाते हैं। आना जाना लगा रहता है। केवल परमात्मा ही स्थाई है, स्थिर है और हमेशा
था, हमेशा है और आगे भी हमेशा रहेगा। परमानेन्ट और स्थिर या स्थायी उसे ही कहा जा
सकता है, जिसका कोई लेखा न होता हो अर्थात मौत का लेखा ना होता हो। असमान भी
नाशवन्त है और प्रलय आने से यह धरती भी नहीं रहेगी किन्तु कोई स्थिर है, तो वो है,
केवल परमात्मा। ASइस उपदेश को सुनकर दौलतखान बहुत प्रभावित हुआ और गुरुदेव को
नमस्कार करके चला गया। गुरुदेव के वापस लौटने का समाचार नगर में फैलते ही बहुत से
पुराने सतसँगी गुरू जी को मिलने आए जिससे कुछ दिन सुलतानपुर की धर्मशाला में पुनः
कई गुना रौनक होने लगी। सुबह-शाम कीर्तन के पश्चात् गुरुदेव अपने प्रवचनों द्वारा
संगत को गुरमति दृढ़ करवाने लगे। कुछ दिन पश्चात् आप जी ने तलवण्डी जाने का
कार्यक्रम बनाया और भाई मरदाना जी सहित वहाँ पहुँचे।