64. तीर्थों पर भटकना व्यर्थ (रिवाड़ी
नगर, हरियाणा)
श्री गुरू नानक देव जी जयपुर नगर से नारनौल होते हुए रिवाड़ी
पहुँचे। नगर के बाहर एक पुराने मन्दिर के निकट आपने एकान्त स्थान देखकर डेरा लगाया।
भाग्यवश कुछ तीर्थ यात्री, जो कि गँगा स्नान करके घरों को लौट रहे थे, उन्होंने भी
रात भर के विश्राम के लिए वहीं डेरा लगा लिया। प्रातःकाल आप जी ने स्नान आदि से
निवृत होकर भाई मरदाना जी को कीर्तन करने को कहा और बाणी उच्चारण प्रारम्भ की:
सगल जोति महि जाकी जोति ।। बिआपि रहिआ सुआमी ओति पोति ।।
जिउ कासट मै अगनि रहाइ ।। दूध बीच घी रहिओ समाइ ।।
सागर माहि बुदबुदा हरे ।। कनक कटक घट माटी करे ।।
नानक तिउ जग वहम मझार ।। सतिगुर मिले ता देइ दिखार ।। जन्म साखी
गुरुदेव की रसना से यह बाणी सुनकर तीर्थ यात्री गदगद हो उठे और
कहने लगे, हम ज्ञान प्राप्ति की कामना से ही तीर्थ यात्रा को निकले थे। परन्तु अभी
तक तो मन अशान्त, ज्यों का त्यों ही है। आप कृपा करके हमें ज्ञान प्रदान करें, जिससे
हमारी तीर्थ यात्रा सफल हो जाए। उनकी प्रार्थना पर गुरुदेव ने कहा,
पारब्रह्म-परमेश्वर को तीर्थों पर खोजने की अपेक्षा अपने हृदय में ही खोजना चाहिए,
क्योंकि वह दिव्य ज्योति आपके भीतर उसी प्रकार समाई हुई है, जिस प्रकार दूध में घी,
परन्तु उसकी प्राप्ति पूर्ण सत्यगुरू की शिक्षा पर आचरण करने से ही हो सकती है।
अर्थात अपने हृदय रूपी मन्दिर में उसके दर्शन करने का अभिलाषी व्यक्ति पूर्ण गुरू
की शरण में पहुँचे और गुरू की कृपा के पात्र बनने के लिए, उनके दिखाए मार्ग पर चले,
तो घर में ही प्रभु प्राप्ति सम्भव है।