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59. औंकारेश्वर का सिद्वान्त (खण्डवा क्षेत्र, मध्यप्रदेश)

श्री गुरू नानक देव जी दौलताबाद से खण्डवा ज़िले की ओर प्रस्थान कर गए। खण्डवा के निकट मान्धता नामक स्थान पर नर्मदा नदी कई घुमाव-फिराव के कारण दो बार घोड़े की नाल की भाँति बहती हुई आगे बढ़ती है जिससे वहाँ एक द्वीप की उत्पत्ति हो गई है। स्थानीय लोगों ने पौराणिक किवदन्तियों के अनुसार वहाँ पर एक मन्दिर बना रखा है जिसे वे ओंकारेश्वर जी का मन्दिर कहते हैं। ओंकारेश्वर मन्दिर में ओंकार के सिद्धाँत के विरुद्ध साकार की उपासना होती देखकर, गुरुदेव क्षुब्ध हुए। उन्होंने कहा कि प्राचीन "ऋषि-मुनियों" ने अति श्रेष्ठ दार्शनिक सिद्धाँत मानव कल्याण हेतु प्रस्तुत किए हैं, किन्तु पुजारी लोगों ने फिर से वही घुमा-फिराकर मानवता को कुएँ में धकेलने का मार्ग अपना लिया है। वहाँ पर पूजा के लिए ब्रह्म, विष्णु तथा महेश आदि तीन अलग-अलग मन्दिर बनाकर, अलग-अलग पुजारी जनता को अपनी ओर आकृष्ट कर रहे थे। उन मन्दिरों में मुख्य शिव मन्दिर था जहाँ शिवलिंग की पूजा हो रही थी। पुजारी वर्ग वास्तव में अपनी रोज़ी-रोटी के चक्रव्यूह में घिरे हुए थे। उनको यथार्थ का ज्ञान होते हुए भी जनता को गुमराह करने में ही अपना भला जान पड़ता था। अतः वह इन तीनों शक्तियों के स्वामी, ओंकार दिव्य निराकार परम ज्योति के विषय में जिज्ञासुओं को नहीं बताना चाहते थे। उनका तर्क था कि जनसाधारण इतनी सूक्ष्म बुद्धि नहीं रखता कि उसे परम तत्व के विषय में ज्ञान दिया जाए। अतः वह इसी प्रकार जनता को अपना ग्राहक जानकर अपनी-अपनी दुकानदारी चलाते थे। इस पर गुरुदेव ने पुजारी वर्ग, पण्डों को चनौती दी और कहा, रूढिवादी प्रथा चलने से तुम स्वयँ भी प्रभु की दृष्टि में अपराधी हो क्योंकि सत्य ज्ञान को न बताकर केवल व्यक्तिगत स्वार्थ सिद्धि हेतु जनता के भोलेपन का अनुचित लाभ उठाना जानते हो तथा अपने कर्त्तव्य से मुँह मोड़कर प्रभु के सन्मुख कैसे होंगे। क्योंकि गलत विधि विधान से मोक्ष सम्भव नहीं।

केते गुर चेले फुनि हूआ ।।
काचे गुर ते मुक्ति न हूआ ।। राग रामकली, अंग 932

अर्थ: हे पण्डे, "गुरू की मति वाला" रास्ता पकड़ने के अलावा "आत्मा कई जूनींयों" में पड़कर पड़कर थक जाती है और इतनी अनगिनत जातियों में से निकलती है कि जिनका अंत नहीं। इन बेअंत जूनियों में भटकते हुए कई माँ, पुत्र और पुत्री बनते हैं कई गुरू बनते हैं और कई चेले भी बनते हैं। इन जूनों से तब तक मुक्ति नहीं मिलती, जब तक किसी कच्चे गुरू की शरण ली गई होती है। मुक्ति का मार्ग आन्तरिक चारित्रिक, नैतिकता से सम्बन्ध रखता है। गुरू जी ने पुजारी वर्ग को खरी-खरी सुनाई तो जिज्ञासावश वे सभी इकट्ठे होकर गुरुदेव के साथ ज्ञान गोष्ठि के लिए पहुँचे। तब भाई मरदाना जी के रबाब के स्वर में गुरुदेव ने शब्द उच्चारण किया:

एकु अचारु रंगु इकु रूपु ।। पउण पाणी अगनी असरूपु ।।
एको भवरु भवै तिहु लोइ ।। ऐको बूझै सूझै पति होइ ।।
गिआनु धिआनु ले समसरि रहै ।। गुरमुखि एकु विरला को लहै ।।
जिस नो देइ किरपा ते सुखु पाए ।। गुरू दुआरै आखि सुणाए ।।
राग रामकली, अंग 930

तत्पश्चात् गुरुदेव ने अपने प्रवचनों में कहा, ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव का निर्माता एक महाशक्ति और भी है जिसे आप ओंकार के नाम से जानते हैं। उसको विभाजित करना अनर्थ है। वह ‘त्रि भवन महि एको ज्योति’ है। अतः यही सिद्धाँत जनसाधारण में दृढ़ करवाना चाहिए। कोई यँत्र तँत्र मुक्ति पद नहीं हो सकते। काम क्रोध आदि वासनाओं पर नियँत्रण रखकर ही साधना के मार्ग पर अग्रसर हुआ जा सकता है। श्री गुरू बाबा नानक जी के मुखारविन्द से जब ओंअकार अक्षर का विचार पंडितों ने श्रवण किया तो वे सभी गदगद होकर बहुत प्रसन्न हुए। अतः चरणों में आ गिरे और प्रार्थना करने लगे, आपके दर्शनों के कारण कृतार्थ हुए हैं। अब आप हम पर कृपा करके मुक्ति के लिए ज्ञान दीजिए तब गुरुदेव दयालु हुए, भक्ति ज्ञान देकर भजन करने का नियम दृढ़ कराया कि वह सर्व व्यापक है। अतः उसे प्रत्येक स्थान पर प्रत्येक क्षण उपस्थित जानों।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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