52. विचार की कसोटी से शुभ कर्म (तिरूपति
मन्दिर, आँध्रप्रदेश)
श्री गुरू नानक देव जी काँचीपुरम नगर से आँध्रप्रदेश के चित्तूर
जिले में वैंकटाचल पर्वत पर बाला जी के मन्दिर में पहुँच गये। उस मन्दिर को तिरूपति
मन्दिर भी कहते हैं। उन दिनों यह मन्दिर उस क्षेत्र का सबसे बड़ा धार्मिक स्थान था।
लोग दूर-दूर से दर्शनों के लिए आते थे। महिलाएँ अपनी प्रथा अनुसार मन्नतें माँगती
थी कि यदि उसका कार्य सिद्ध हुआ तो वह अपने सिर के बाल भेंट चढ़ा देंगी। अतः कुछ एक
महिलाएँ अँधविश्वास में अपने सिर के बाल जड़ से मुँडवाकर वहाँ के पुजारियों को भेंट
कर आती। जिस कारण वे कुरूप दिखाई देने लगती। पुजारी वर्ग उनके भोलेपन का अनुचित लाभ
उठाते। इस तरह वे लोग सुन्दर लम्बे तथा स्वस्थ बालों को विदेशों में नारी श्रृँगार
के लिए बेचकर अपना व्यापार चलाते। यह अनुचित धँधा या तस्करी अँधविश्वास के कारण
बहुत जोरों से चल रही थी। महिलाओं की कुरूपता गुरुदेव से देखी न गई। क्योंकि उत्तरी
भारत में महिलाओं के विधवा होने पर उनको करूप करने के लिए उनके बाल काटने की परम्परा
थी। गुरुदेव ने वहाँ की नारी जाति को जागृत करने के लिए तथा उनको अधिकारों के लिए
जूझने के लिए एक प्रेरणा देने का कार्यक्रम बनाया। उन्होंने मन्दिर के प्राँगण में
जहां जनता दर्शनों की प्रतीक्षा में खड़ी रहती, भाई मरदाना जी को कीर्तन आरम्भ करने
को कहा। जैसे ही कीर्तन प्रारम्भ हुआ मधुर शास्त्रीय सँगीत पर आधारित बाणी सुनकर
जनता को गुरुदेव की ओर आकर्षित होना ही था। उस समय गुरुदेव ने उच्चारण किया:
अकलि एह न आखीऐ अकलि गवाईऐ बादि ।।
अकली साहिबु सेवीऐ अकली पाईऐ मानु ।।
अकली पड़ि कै बुझीऐ अकली कीचै दानु ।।
नानकु आखे राहु ऐहु होरि गलां सैतानु ।। राग सारंग, अंग 1245
अर्थ: अपने इष्ट की उपासना करते समय यदि प्राणी अँधविश्वास को
त्यागकर अक्ल से काम ले तो उसकी उपासना तथा किया हुआ दान रँग लाएगा, जिससे उसे
आदर-मान मिलेगा। परन्तु भेड़चाल की तरह बिना सोचे समझे जो लोग दान कर रहे हैं, उससे
हानि ही हो रही है। क्योंकि किये हुए दान का दुरोपयोग हो रहा है। जो किसी ने दान
किया है वह तो किसी की भी आवश्यकता पूर्ति नहीं कर रहा बल्कि शैतान लोग अपने
ऐश्वर्य के लिए उसका अनुचित लाभ उठाकर जनता को मूर्ख तथा कुरूप बनाकर हंस रहे हैं,
क्योंकि उन्होंने उनका प्राकृतिक सौन्दर्य छीन लिया है। सभी को, साखकर महिलाओं को
यह बात समझ में आ गई।