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51. उज्ज्वल आचरण में आत्मकल्याण (काँचीपुरम नगर, तामिलनाडू)

श्री गुरू नानक देव जी पाण्डीचेरी से काँचीपुरम नगर पहुँचे। इस नगर को दक्षिण का बनारस भी कहते हैं। यह दक्षिण भारत का अनुपम नगर है। उन दिनों वहाँ वैष्णवों, शैवों तथा बौद्धों के शिक्षा सँस्थान बहुत प्रगति पर थे। मन्दिरों की नगरी होने पर भी गुरुदेव को वहाँ पर वास्तविक धर्मी पुरुषों के दर्शन नहीं हुए। एक दिन एक वैष्णव मन्दिर में गुरुदेव को कुछ साधु पुरुषों ने प्रवचन करने को कहा। गुरुदेव ने उनका अनुरोध स्वीकार करते हुए कहा, वास्तविक जीवन सत्य, सन्तोष, क्षमा, दया इत्यादि शुभ गुणों को धारण करने में है। किसी विशेष सम्प्रदाय की केवल वेषभूषा धारण करने में नहीं। इसलिए प्राणी को अपने अन्तःकर्ण में सदैव झाँककर देखते रहना चाहिए कि कहीं वह केवल कर्मकाण्ड करके अपना समय नष्ट तो नहीं कर रहा। प्रभु अन्तर्यामी है, उस के आगे पाखण्ड या छल कपट नहीं चल सकता। इसलिए वही कार्य करने चाहिए जो उस की दृष्टि में स्वीकार्य हो। गुरुदेव ने भाई मरदाना जी को सुर साधने को कहा और स्वयँ बाणी उच्चारण करने लगे:

सचु वरतु संतोखु तीरथु गिआनु धिआनु इसनानु ।।
दइआ देवता खिमा जपमाली ते माणस परधानु ।।
जुगति धोती सुरति चउका तिलकु करणी होइ ।।
भाउ भोजनु नानका विरला त कोई कोइ ।। राग सारंग, अंग 1245

अर्थ: जिन मनुष्यों ने सच को धारण करने का प्रण लिया है, संतोष जिनका का तीरथ है, जीवन मनोरथ की समझ और प्रभु चरणों में अपना चित जोड़ना ही जिन्होंने तीरथों का इस्नान समझा है, दया जिनका इष्ट देव है, क्षमा करने की आदत जिनकी माला है, जीवन की जाँच जिनके लिए देव पूजा के वक्त पहनने वाली धोती है, सुरत को पवित्र रखना जिनका चौका है, ऊँचें आचरण का जिन्होनें अपने माथे पर तिलक लगाया हुआ है और प्रेम, जिनकी आत्का की खुराक है, हे नानक वो मनुष्य सबसे अच्छे हैं, परन्तु ऐसा तो कोई कोई ही विरला है।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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