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50. प्रकृति के दृढ़ नियम (पाण्डीचेरी)

श्री गुरू नानक देव जी करानूर नगर से पाण्डीचेरी क्षेत्र में पहुँचे। वहाँ उन दिनों बौद्ध, जैन तथा वैष्णव धर्मों के अनुयायी, लगभग बराबर सँख्या में रहते थे। अतः उन तीनों में सैद्धाँतिक मतभेद सदैव बना रहता था, कि कौनसा आध्यात्मिकवाद मानव कल्याण के लिए हितकारी है। प्रत्येक धर्म को मानने वाले अपने धार्मिक स्थल पर जनता में अपनी धाक जमाने में व्यस्त रहते थे। वास्तव में जनता कोई उचित जीवन पद्धति चाहती थी, क्योंकि तीनों धर्मों के विपरीत सिद्धाँतों के कारण उनमें मानसिक तनाव बना रहता था। साधारण व्यक्ति कोई ठीक निर्णय नहीं कर पा रहा था। ऐसे में गुरुदेव की लोकप्रियता देखकर पुजारी वर्ग को चिंता हुई कि उनके विरुद्ध जनता में आक्रोश है जो कि उनता को उलझाकर भटकने पर विवश कर रहे थे। इसलिए वे नई चेतना का सामना न कर सकने की स्थिति में थे, जिसके परिणाम स्वरूप वे गुरुदेव के विरुद्ध योजना तैयार करने लगे कि जितनी जल्दी सम्भव हो सके उस फ़कीर को भ्रष्ट प्रमाणित करके वहाँ से हटा दिया जाए। उधर गुरुदेव के क्रांतिकारी उपदेश रँग ला रहे थे। वे इतने लोकप्रिय हो गए कि जनसाधारण उन पर न्यौछावर होने पर तैयार हो गए। पुजारी वर्ग ऐसे में सीधे रूप से सामना कर सकने में अपने आप को असमर्थ पा रहे थे, क्योंकि जनता उनके बहकावे में नही आ रही थी। अतः वे षड्यन्त्र रचने की युक्ति पर विचार करने लगे और उन्होंने एक-दूसरे को विश्वास में लेकर अफवाह फैलाई कि परम्परागत पूजा-अर्चना को त्याग देने से प्राकृतिक विपदा आने वाली है। भूकम्प या ज्वार, समुद्री तूफान इत्यादि भी आ सकता है। जिससे जन-धन की हानि हो सकती है। जब इस प्रकार की दुर्घटना होने की भविष्यवाणियाँ जब गुरुदेव के पास पहुँची तो वे बोले कि किसी को भी भयभीत होने की कोई आवश्यकता नही, क्योंकि प्रकृति के अपने अटल नियम हैं, जो किसी विशेष कर्मकाण्डों के साथ नहीं जुड़े हुए। यदि प्राकृतिक प्रकोप होना ही होगा तो वह लोगों के डगमगाने से नहीं टलेगा, भगवान पर विश्वास रखो। वह सबको कुशलमँगल रखेगा। गुरुदेव के धैर्य बन्धाने से निष्ठावान व्यक्तियों में दृढ़ता और साहस आ गया। वे सब अफवाहों को समझने लगे, जिससे सब अडोल रहे। गुरू जी ने तब प्रकृति के नियमों के संम्बंध में शब्द उच्चारण किया:

भै विचि पवणु वहै सदवाउ ।। भै विचि चलहि लख दरीआउ ।।
भै विचि अगनि कढै वेगारि ।। भै विचि धरती दबी भारि ।।
भै विचि इंदु फिरै सिर भारि ।। भै विचि राजा धरम दुआरु ।।
भै विचि सूरजु भै विचि चंदु ।। कोह करोड़ी चलत न अंतु ।।
भै विचि सिध बुध सुर नाथ ।। भै विचि आडाणे आकास ।।
भै विचि जोध महाबल सूर ।। भै विचि आवहि जावहि पूर ।।
सगलिआ भउ लिखिआ सिरि लेखु ।।
नानक निरभउ निरंकार सचु एक।।1।।  राग आसा, अंग 464

अर्थ: हवा सदी से "परमात्मा के डर में" चल रही है। लाखों दरिया भी उसके डर में बह रहे हैं। आग जो सेवा कर रही है, वो भी उसके डर में है। सारी धरती उसके डर के कारण नीचे लगी हुई है। परमात्मा के डर में इन्द्र राजा सिर के भार फिर रहा है यानि की मेघ उसकी रजा में उड़ रहे हैं। धरमराज का दरबार भी रब के भय में है। सूरज और चन्द्रमाँ भी उसके डर के मारे हुक्म में हैं। सिद्ध, बुद्ध, देवते, नाथ, सारे के सारे उसके भय में है। जीव जो जगत में जन्मते और मरते हैं, सब परमात्मा के भय में हैं। बड़े बड़े बल वाले योद्धा और सूरमा भी उसके भय में हैं। सारे जीवों के माथे पर भय रूपी लेख लिखा हुआ है। परमात्मा का नियम ही ऐसा है कि सारे के सारे उसके भय में हैं। हे नानक, केवल एक सच्चा निरंकार यानि की परमात्मा ही भय रहित है। कोई चारा न चलता देखकर पुजारी वर्ग के कुछ लोगों ने गुरुदेव का सामना करने की ठानी। वह इकट्ठे होकर गुरुदेव से उलझने पहुँच गए। गुरुदेव ने उनकी आशा के विपरीत उनका हार्दिक स्वागत किया, जिससे वे सभी बहुत प्रभावित हुए तथा गुरुदेव की मीठी बाणी सुनकर उनका आक्रोश जाता रहा। वास्तव में वे जानना चाहते थे कि गुरुदेव के पास क्या युक्ति है, जिससे जनसाधारण उनका हृदय से सत्कार करने लगा है। इसी सँकल्प को लेकर वे आध्यात्मवाद पर गुरुदेव की विचारधारा जानना चाहते थे। गुरुदेव ने उनकी जिज्ञासा शान्त करते हुए कहा,प्रभु को प्रसन्न करने की सर्वप्रथम युक्ति है: 1. हृदय शुद्ध करना अर्थात किसी के प्रति द्वेष भावना न रखना। 2. दूसरा सूत्र है, प्रभु की इच्छा में ही खुशी अनुभव करनी अर्थात आत्मसमर्पण। 3. तीसरा सूत्र है, प्रभु द्वारा दिये गये प्रत्येक पदार्थ के लिए उसका कृतज्ञ होना अर्थात अभिमान मन में न लाना। 4. चौथा सूत्र है, विनम्र होना अर्थात मीठी बाणी बोलना। 5. पाँचवाँ सूत्र है ज्ञान "इन्द्रियों पर नियन्त्रण" रखना अर्थात "काम चेष्टा" पर अँकुश लगाना। 6. छटा सूत्र है, "उदारवादी होना" अर्थात यथाशक्ति "परोपकार" के लिए जरूरतमँदों की आर्थिक सहायता करना। इन सब कार्यों का लक्ष्य एक ही है कि प्राणी उस निराकार दिव्य ज्योति को अपने हृदय रूपी मन्दिर में बसाने के लिए पवित्र स्थान बना लें जिससे उसका चिंतन, मनन सहज ही रँग लाएगा।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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