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43. विवेक बुद्धि का होना अनिवार्य (तँजावुर नगर, तामिलनाडू)

श्री गुरू नानक देव जी श्रीरँगम से तँजावुर नगर पहुँचे। उन दिनों यह क्षेत्र बहुत विकसित था तथा भवन कला में अग्रणी था। विशेषकर मन्दिरों के निर्माण में अद्भुत कला-कौशल का प्रदर्शन किया गया था। अधिकाँश मन्दिर जलाशयों के किनारे होने के कारण उनमें कमल के फूलों का दृश्य मनोरम था। गुरुदेव ने इन रमणीक स्थानों पर अपार जनसमूह को कीर्तन द्वारा प्रभु स्तुति करने के लिए प्रेरित किया। परन्तु कुछ श्रोतागण गुरुदेव से कहने लगे, आपकी शिक्षा मन को भाती है। किन्तु आपसे क्या छिपाना, इन तथाकथित धार्मिक स्थानों के पुजारियों का स्वयँ का जीवन चरित्र उज्ज्वल नहीं। ये लोग परहेज़गार जीवन नहीं व्यापन करते, जिससे कि दूसरों को प्रेरणा मिले। बल्कि यहाँ तो उल्टा ही प्रभाव होता है। इन लोगों को देखकर तो भला मनुष्य भी अपना धर्म-कर्म सब छोड़ देता है। इसके उत्तर में गुरुदेव ने जिज्ञासुओं को साँत्वना देते हुए कहा, आप विवेक बुद्धि से काम लें। प्रकृति का यह नियम है। जल में बहुत से मेंढक होते हैं परन्तु उनका अहार कीड़े-मकोड़े, काई इत्यादि है। वे कभी भी कमल फूल की सुगन्ध या उसकी कोमलता का आँनद नहीं उठा सकते। ठीक इस प्रकार ये लोग भी है जो धार्मिक स्थलों पर रहते हुए भी प्रभु की पहचान नहीं कर पाते। जिस प्रकार कमल फूल का लाभ भँवरा दूर से आकर ले जाता है या चन्द्रमाँ का अनुभव करके कमल खिल जाता है। ठीक उसी प्रकार जिज्ञासु विवेक बुद्धि से धार्मिक स्थलों से दूर रहते हुए भी अपनी भावनाओं के बल पर प्रभु की महिमा का पूर्ण आँनद उठाते रहते हैं।

दादर तू कबहि न जानसि रे ।।
भखसि सिबालु बससि निरमल जल अंम्रितु न लखसि रे ।। 1 ।। रहाउ ।।
बसु जल नित न वसत अलीअल मेर चचा गुन रे ।।
चंद कुमदनी दूरहु निवससि अनभउ कारिन रे ।। राग मारू, अंग 990

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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