42. कर्म ही प्रधान है (श्री रँगम,
त्रिच्रापल्ली तामिलनाडू)
श्री गुरू नानक देव जी मदुरै से त्रिच्रापल्ली पहुँचे। दक्षिण
भारत का यह एक विशाल नगर है। इस जिले के श्री रँगम नामक स्थान पर रामानुज ऋषि की
याद में एक विशाल वैष्णव मन्दिर है। यह स्थान कावेरी तथा कोलेरून नदियों के मध्य
स्थित है इसी कारण वहाँ पर यात्रियों का आवागमन सदैव बना रहता है। गुरुदेव के वहाँ
पधारने पर उनके कीर्तन से तीर्थयात्री बहुत प्रभावित हुए। अतः उनके पास कीर्तन
श्रवण करने के लिए बहुत बड़ी सँख्या में भक्तगण श्रोता रूप में इकट्ठे होने लगे। कुछ
श्रोताओं ने आप जी से शिकायत की कि मन्दिर के पुजारीगण साधरण यात्रियों से अच्छा
व्यवहार नहीं करते तथा बहुत फीकी और कड़वी भाषा बोलते हैं। यदि कोई धनी व्यक्ति
दिखाई देता है तो वे उसे बहला-फुसलाकर षडयन्त्र से ठग लेते है। उत्तर में गुरुदेव
ने कहा— हे ! भक्तजनो यह मृत्यु लोक कर्म भूमि है। यहाँ पर प्राणी केवल कर्मो के
लिए स्वतन्त्र हैं। अतः उसे फल के लिए भी तैयार रहना चाहिए क्योंकि कर्मों की गति
न्यारी है। इससे कोई भी बच नहीं पाया भले ही वे समाज में उच्च वर्ग या अवतारी पुरुष
कहलाते रहे हों। गुरुदेव ने इसके लिए तब बाणी उच्चारण की तथा कीर्तन द्वारा सभी
भक्तों को यह शिक्षा दी कि कोई भी बच नहीं सकता। उसे अपने किए कर्मों का फल तो भोगना
ही पड़ता है।
सहंसर दान दे इंद्र रोआइआ ।। परसरामु रोवै घरि आइआ ।।
अजै सु रोवे भीखिआ खाइ ।। ऐसी दरगह मिलै सजाइ ।।
राग रामकली, अंग 953
अर्थः गौतम ऋषि ने हजारों भगों का दण्ड देकर इन्द्र को रूला दिया
था। इसी प्रकार श्री रामचन्द्र जी से अपना बल गवाँकर परसूराम घर पर आकर रोया था।
राजा अजै रोया था, जब उसे भिक्षा में लीद खानी पड़ी थी। प्रभु की हजूरी में ऐसी ही
सजा मिलती है। (हजार भगों का जो दण्ड इन्द्र देवता को मिला था, वो गौतम ऋषि ने
श्राप देकर लगाया था। इन्द्र ने गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या के साथ धोखे से संग किया
था। इसी प्रकार परसुराम ब्राहम्ण थे, इनके पिता जमदगनी को सहस्त्रबाहु ने मार दिया
था, तब बदले की आग में परसुराम ने क्षत्रिय कुल का नाश करना शुरू कर दिया था, पर जब
श्री रामचन्द्र जी ने हथियार उठाए और परसुराम का बल खींच लिया तब परसुराम घर आकर
रोया था। इसी प्रकार राजा अजै जो कि श्री रामचन्द्र जी के दादा जी थे, उन्होंने एक
साधु को भिक्षा में लीद दी थी, जो बाद में उसे भी खानी पड़ी।)