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40. प्रेम ही पूजा है (अनुराधपुरा, श्रीलंका)

श्री गुरू नानक देव जी ट्रिंकोमली से अनुराधपुरा पहुँचे। यह स्थान भी श्रीलंका के उत्तरी क्षेत्र में केन्द्र बिन्दु है। वहाँ से ज्ञान गोष्ठी के लिए गुरुदेव को पहले भी निमन्त्रण मिल चुके थे परन्तु उन्होंने वह स्वीकार नहीं किये थे। उनके अनुसार उसका निर्णय तर्को के आधार पर हो जबकि विपक्षी दल चाहता था कि उस बात का निर्णय बहुमत के बल पर होना चाहिए। जब आप वहाँ पर अपने कार्यक्रम अनुसार पहुँचें तो आपको मिलने के लिए अनेक लोग जिज्ञासावश पहुँचे, कि देखें, वह कौन सा महापुरुष है जिसने राजा शिवनाभि को अपना अनुयायी बना लिया है। अतः गुरुदेव सभी से बहुत स्नेह से मिलते तथा उनकी शँकाओं का निराकरण करते। इस प्रकार वहाँ पर एक प्रश्न उभरा कि प्रभु दिव्य ज्योति के दर्शन साकार रूप में या निराकार रूप में होने चाहिए और मानव का कल्याण किस रूप में सम्भव है ? इसके उत्तर में गुरुदेव ने स्पष्ट किया, अधिकाँश लोग साकार उपासना पहले से ही करते हैं जिसमें व्यक्ति बिना कारण बच्चों जैसे झमेले में उलझकर रह जाता है। कभी मूर्ति को नहलाओ, कभी खिलाओ कभी सुलाओ इत्यादि। जबकि व्यक्ति स्वयँ जानता है कि उसके द्वारा किए गए परीश्रम का उस मूर्ति को कोई लाभ नहीं। क्योंकि वह जड़ है अतः उसका परीश्रम व्यर्थ जाता है। जब परीश्रम व्यर्थ है तो उसके फल की आशा भी व्यर्थ है। इसलिए उनको अनुभव करना चाहिए कि वे स्वयँ उस पारब्रह्म परमेश्वर की बनाई गई अद्भुत जीवित मूर्तियाँ हैं। जिसमें वह स्वयँ वास करते हैं। इसीलिए सभी महापुरुष बार-बार यही कहते रहे है, ‘घटि घटि महि हरि जू बसै सन्तन कहिओ पुकार’, अर्थात हरी सब में एक समान रमा हुआ है। जब सबमें उस प्रभु की ही ज्योति कार्य कर रही है तो सबको अपने भीतर ही उसकी खोज करनी चाहिए। अतः उस मृग की भान्ति भटकते नहीं रहना चाहिए, जिसकी नाभि में कस्तूरी है वह सुगन्धी की खोज में इधर-उधर अज्ञानतावश भागता फिरता है। अर्थात वह प्रेम अनुभव प्रकाश है उसे महसूस ही किया जा सकता है कि वह कण-कण में सर्वव्यापक है। जिस दिन प्राणी उस प्रभु को अपने भीतर खोजने में जुट जायेगा उस दिन से द्वैतवाद भी समाप्त हो जाएगा तथा वह सबको स्नेह से देखने लग जायेगा। यह क्रान्तिकारी परिवर्तन सब में एकता लाएगा जिससे समाज में भाईचारा उत्पन्न होगा और आपसी ईर्ष्या कलह-कलेश समाप्त होकर परस्पर प्रेमभाव से जीवन व्यतीत करने का सिद्धाँत समझ में आ जाएगा। अर्थात जो समाज का जाति-पाति के आधार पर वर्गीकरण है उसके पीछे साकार उपासना का ही हाथ है। क्योंकि साकार उपासना में प्रत्येक व्यक्ति का इष्ट अलग-अलग होता है जिससे एकता के स्थान पर अनेकता आ जाती है। वास्तव में प्रेम ही पूजा है जो केवल निराकार उपासना से ही प्राप्त हो सकती है।

एको एकु कहै सभु कोई हउमै गरबु विआपै ।।
अंतरि बाहरि एकु पछाणै इउ घरु महलु सिञापै ।।
प्रभु नेड़े हरि दूरि न जाणहु एको स्रिसटि सबाई ।।
एकंकारु अवरु नहीं दूजा नानक एकु समाई ।। 5 ।।
राग रामकली, अंग 930

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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