37. कार्तिकेय मन्दिर (कत्तरगामा नगर,
श्रीलँका)
श्री गुरू नानक देव जी कोटी, सीता वाका, बादूला इत्यादि नगरों
से होते हुए कत्तरगामा पहुँचे। वहाँ पर शिव के पुत्र कार्तिकेय का एक विशाल मन्दिर
था। स्थानीय जनता में इसकी बहुत मान्यता थी तथा किवदंतियाँ प्रचलित थी कि उस देवता
रूप पर उसकी माता पार्वती का मन भी भ्रम गया था। अतः कार्तिकेय की पूजा पुजारी गण
पर्दे की ओट लेकर ही करते थे। जनसाधारण को मूर्ति के दर्शन नहीं करवाए जाते थे।
विशेषकर स्त्रियों को निकट नहीं आने दिया जाता था। जब भी कोई नवविवाहित वधु
पूजा-अर्चना के लिए आती तो मूर्ति तथा दुल्हन के मध्य पर्दा अनिवार्य होता था।
किवदंती यह थी कि कार्तिकेय के दर्शन करने मात्र से दुल्हन का मन चँचल होकर विचलित
हो जाता है जिससे उसके भटकने का भय है। क्योंकि यह देवता रूप यौवन का प्रतीक है। अतः
दुल्हन को दर्शन किये बगैर पूजा-अर्चना करके रूप-यौवन की कामना करनी चाहिए। गुरुदेव
ने इस तरह की काल्पनिक कथाओं पर आपत्ति की और विवेक बुद्धि से इस बात का विश्लेषण
करने के लिए जनसाधारण को आमन्त्रित किया। गुरुदेव ने अपने प्रवचनों में कहा–
सर्वशक्तियों का स्वामी वह प्रभु-परमेश्वर स्वयँ है उसके रहते किसी दूसरे से कोई
कामना करनी ही नहीं चाहिए। जो कोई एक ईश्वर को छोडकर किसी दूसरे दर पर भटकता है वह
ठोकरें ही खाता है तथा उसे प्रप्ति की कुछ आशा भी नहीं करनी चाहिए। हाँ अनिष्ट होने
की सम्भावना अवश्य हो सकती है। एक जिज्ञासु ने गुरुदेव से पूछा, हे गुरुदेव यह
पण्डित कार्तिक मास में बच्चों के विवाह भी नहीं करने देते। उनका कथन है कि कार्तिक
मास में विवाहिता स्त्री पथ भ्रष्ट कलँकित हो जाती है क्योंकि कार्तिक माह में
कार्तिकेय देवता का प्रभाव बना रहता है। गुरुदेव ने उत्तर में कहा, इन बातों का कोई
आधार नहीं। यह केवल दकियानूसी विचारधारा है जिसको अँधविश्वास तथा अवैज्ञानिक कह सकते
हो।