36. राजा शिवनाभ (मटिया कलम, कोलम्बो)
श्री गुरू नानक देव जी का एक परम भक्त भाई मनसुख था जो कि लाहौर
नगर का एक बहुत बड़ा व्यापारी था, उसने गुरुदेव से सुलतानपुर में गुरू दीक्षा
प्राप्त करके सिक्खी धारण कर ली थी अर्थात शिष्य बन गया था। वह अपने व्यापार को
विकसित करने के लिए दक्षिण भारत से मसाले इत्यादि खरीदने तथा पँजाब का माल वहाँ
बेचने पहुँचा हुआ था। वह अपने माल की मन्डी की खोज में श्रीलंका के मटिया कलम स्थान
पर पहुँच गया था। वहाँ पर उसने गुरुदेव के अनुयायी होने के नाते उनकी शिक्षा के
अनुसार नित्य कर्म करना प्रारम्भ कर दिया। प्रातःकाल उठकर प्रभु चिन्तन करना
तत्पश्चात् भोजन बनाकर लँगर रूप में जरूरतमन्दों में बाँटकर खाना। अकस्मात् ही एक
घटना इस प्रकार हुई कि उस दिन एकादशी का मुख्य व्रत था। स्थानीय नियमावली अनुसार उस
दिन सभी ने व्रत रखना था, सरकारी आदेश के उल्लँघन की आज्ञा किसी नागरिक को भी नहीं
थी। अतः किसी को भी घर पर रसोई तैयार करने का साहस नहीं था। भले ही वह व्रत रखने की
स्थिति में न था, परन्तु भाई मनसुख ने गुरू जी के आदेश अनुसार भोजन तैयार कर सभी
जरूरतमन्दों को भोजन कराया। बस फिर क्या था उन्हें गिरफतार करके व्रत न रखने के
अपराध में दंडित करने के लिए न्यायाधीश के समक्ष प्रस्तुत किया गया। भाई मनसुख जी
ने अपने स्पष्टीकरण में कहा, महोदय मैं भी ईश्वर का भक्त हूँ। अतः मैं उसी के नाम
पर, उसी के नियम अनुसार गरीबों की सहायता करना अपना कर्त्तव्य समझता हूँ। ताकि कोई
भूखा-प्यासा न रहे किन्तु आप बिना कारण दीन दुखियों से उपवास करने को कहते हैं, जब
कि भोजन बिना उनको जीने के लिए बाध्य करना, उनको कष्ट देकर पीड़ित करने के समान है।
वह ईश्वर सभी को आजीविका, रोजी-रोटी देता है। परन्तु आप अपनी मिथ्या मान्यताओं के
अनुसार, उनमें हस्तक्षेप करके जनसाधारण के जीवन में परेशानियाँ उत्पन्न करते हैं।
इससे प्रभु प्रसन्न होने वाला नहीं क्योंकि वह सबको रिज़क दाता है किन्तु आपका नियम
उसके कार्य में बाधा उत्पन्न करता है। उनके इस तर्क ने न्यायधीश को निरुतर कर दिया
और न्यायाधीश ने इस घटना क्रम को राजा शिवनाभि के सम्मुख भेज दिया। शिवनाभि ने भाई
मनसुख से विचार गोष्ठी की। अतः सन्तुष्ट होकर पूछा, आपके आध्यात्मिक गुरू कौन हैं ?
मैं उनके दर्शनों की कामना करता हूँ क्योंकि मैं किसी पूर्ण पुरुष से गुरू दीक्षा
लेने की अभिलाषा लिए बैठा हूँ। इस पर भाई मनसुख जी ने बताया, मेरे गुरू, बाबा नानक
देव जी हैं, वह इन दिनों अपने प्रचार दौर के लिए दक्षिण के तीर्थ स्थलों इत्यादि से
होते हुए, विश्व भ्रमण पर है और आधुनिक जीवन शैली से प्रभु प्राप्ति के सिद्धाँतों
का प्रचार कर रहे हैं। सम्भावना है कि वह इस द्वीप में भी पधारेंगे। क्योंकि वह ऐसी
जगह अवश्य ही पहुँचते हैं जहां उनको कोई भक्तजन याद करता है।
बस फिर क्या था। राजा शिवनाभि ने गुरुदेव के स्वागत की तैयारी
प्रारम्भ कर दी। पाखण्डी साधुओं को जब यह बात मालूम हुई तो उन्होंने राजा की श्रद्धा
भक्ति से अनुचित लाभ उठाने की सोची। वे जानते थे कि राजा शिवनाभि ने गुरू नानक देव
जी को पहले कभी देखा नहीं है। अतः वे नानक जी जैसा रूप धरकर मटियांकलम पहुँच जाते
और अपने शिष्यों द्वारा झूठा प्रचार करवाते कि गुरू नानक जी आए हैं। राजा शिवनाभि
पहले भी एक दो बार पाखंडी साधुओं के चुँगल में फंस गया था परन्तु जल्दी ही झूठे
साधुओं का भ्रम जाल टूट जाता, क्योंकि वे आध्यात्मिक परीक्षा लेने पर निम्न स्तर तक
गिर जाते। भाई मनसुख ने गुरुदेव की अलौकिक तेजस्वीमय प्रतिभा जो ब्यान की थी, वह
उनमें कहीं दिखाई न देती। वे तो माया तथा रूप यौवन के मोह जाल में फँस जाते। जिससे
उनका स्वाँगी रूप नँगा हो जाता। गुरुदेव के गुणों का ध्यान करके राजा शिवनाभि नित्य
उनकी प्रतीक्षा करता, धीरे-धीरे यह प्रतीक्षा अधीरता में बदल गई। एक दिन राजा
शिवनाम दर्शनों के लिए व्याकुल बैठा था कि राजकीय उदियान के माली ने सूचना दी, हे!
राजन आज आपके यहाँ वास्तव में गुरू बाबा जी आ गए है। वह अपने साथियों के साथ वाटिका
में कीर्तन में व्यस्त हैं उनका कीर्तन सुनते ही बनता है। वे हरियश में लीन हैं।
उनके चेहरे की शान्ति एवँ एकाग्रता से कौन है जो प्रवाभित न हो ? इस समाचार को पाते
ही राजा शिवनाभि ने युक्ति से काम लेने का विचार बनाया और अपने मँत्री परशुराम को
आदेश दिया कि आए हुए साधु बाबा की परीक्षा ली जाए। मंत्री ने आज्ञा पाते ही गुरुदेव
के स्वागत के लिए कुछ चुनी हुई नृत्यकाएँ भेजी जिनका मुख्य कार्य पुरुषों को अपने
रूप यौवन से लुभाकर जाल मे फँसाना होता था। वे युवतियाँ सम्पूर्ण हार श्रृँगार करके
हाव-भाव का प्रदर्शन करती हुई नृत्य कलाओं से आरती उतारने लगीं और स्वागत के मँगल
गीत गाने लगी। परन्तु उन्होंने गुरुदेव को कीर्तन में लीन पाया। वह तो प्रभु चरणों
में अपनी सुरति एकाग्र करके स्मरण में व्यस्त थे। नृत्यकाओं ने कई तरह से प्रयास
किए कि किसी प्रकार गुरुदेव को विचलित किया जा सके, किन्तु गुरुदेव ने भाई मरदाना
जी को प्रभु स्तुति में कीर्तन करने को कहा। गुरुदेव ने उन काम उत्तेजक मुद्राओं
में वासनाओं का वाण चलाने वाली युवतियों को निष्क्रिय करने के लिए पुत्री कह कर
सम्बोधन किया तथा उनको एहसास कराया कि वे भटक गई थीं और सौन्दर्य यौवन व्यर्थ गँवा
रही थी। गुरुदेव ने उच्चारण किया:
कापड़ु पहिरसि अधिकु सीगारु ।। माटी फूली रूपु बिकारू ।।
आसा मनसा बांधे बारू ।। नाम बिना सूना घरु बारु ।।
गाछहु पुत्री राज कुआरि ।। नामु भणहु सचु दोतु सवारि ।।
प्रिउ सेवहु प्रभु प्रेम अधारि ।। गुर सबदी बिखु तिआस निवारि ।।
राग बसंत, अंग 1187
अर्थ: जो जीव स्त्री सुन्दर सुन्दर कपड़े पहनती है, अधिक से अधिक
श्रृँगार करती है और अपने शरीर को देख देखकर फुला नहीं समाती, उसका यह रूप उसको
और-और विकारों की तरफ प्रेरता है। दुनिया की आशा और ख्वाहिशें उसके दसवें दरवाजे को
बन्द कर देती हैं। परमात्मा के नाम बिना उसका दिल, घर यानि की शरीर सुना ही रहता
है। गुरुदेव के यह शब्द उनके हृदयों को भेदन कर गये और उनको अपने वासनामय नँगेपन पर
लज्जा आने लगी। गुरुदेव ने उनका ध्यान आन्तरिक प्रकाश की ओर आकर्षित किया, जिस से
सत्य मार्ग पर चलकर सदैव ही आनँद की प्राप्ति की जा सकती है वे जल्दी ही जान गईं कि
गुरुदेव को उनकी दीनदशा पर दया आई है। अतः वे सबकी सब गुरुदेव से क्षमा याचना करने
लगी तथा प्रणाम करती हुई लौंट गई। विशेष नृत्यकाओं का दल पराजित होकर लौट आया है जब
यह समाचार राजा को मिला तो उसने पुनः एक और परीक्षा लेने के लिए मँत्री को आदेश दिया।
मँत्री परशुराम बहुमूल्य रत्नों के सजे थाल उपहार के रूप में ले कर गया और आग्रह
करने लगा कि वे उन्हें स्वीकार करें। किन्तु गुरुदेव ने सभी उपहारों को जैसे का तैसा
लौटा दिया और कहा, यह माया तो हमारे किसी काम की नहीं। हम तो केवल एक ही विशेष वस्तु
स्वीकार करते हैं जो कि तुम्हारे राजा के पास है। अतः हमें जो आवश्यकता है वही मिलना
चाहिए। यह उत्तर पाकर मँत्री ने राजा को गुरुदेव की इच्छा से अवगत करा दिया। इस बार
गुरुदेव के दर्शनों को बहुमूल्य भेंट लेकर राजा शिवनाभ स्वयँ उपस्थित हुआ।
अभिनँदन के पश्चात् आग्रह करने लगा: उसकी भेंट स्वीकार करें।
गुरुदेव ने कहा: यह सब वस्तुएँ तुम्हारी नहीं है तथा मिथ्या हैं नाशवान हैं। हमें
तो वह वस्तु दो जो तुम्हारी हो। शिवनाभ यह सुनकर सोच-विचार में पड़ गया कि ऐसी कौन
सी वस्तु है जो उसकी भी हो और नाशवान भी न हो। अन्त में वह बोला: गुरू जी ! मेरे
पास तो ऐसी कोई वस्तु है ही नहीं जो मेरी भी हो। और नाशवान न हो। कृपया आप ही बताएँ
कि मैं आप को क्या भेंट करूं ? इस पर गुरदेव जी ने कहा: हमें तुम्हारा मन चाहिए, जो
अभिमान करता है कि मैं राजा हूँ। अतः हम तुम से तुम्हारा मैं-मैं करने वाला मन रूपी
अभिमान चाहते हैं। जब तुम इसे हमें दे दोगे तो सब सामान्य हो जाएगा क्योंकि यह वही
है जो सभी प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न करता है तथा मनुष्य का मनुष्य से वर्गीकरण
करता है। यह, मैं-मैं का गर्व ही जीव आत्मा और परमात्मा के मिलन में बाधक है अतः हम
आपसे इसे ही लेना चाहते हैं। राजा शिवनाम ने कहा: गुरू जी, ठीक है परन्तु इसके न
रहने से मैं राजा कैसे कहलाऊँगा तथा मेरे आदेश किस प्रकार व्यवहार में आएंगे ? गुरू
जी ने कहा: वही तो विधि-विधान हम बताने आए हैं कि कर्म से राजा होते हुए भी मन से
रँक के समान नम्र बनकर जीना चाहिए। ताकि शासन व्यवस्था करते समय किसी से अन्याय न
हो पाए। राजा शिवनाम ने कहा: ठीक है आप अब राजमहल में चलें, सवारी हाजिर है।
गुरुदेव जी ने कहा: हम पशुओं की सवारी नहीं करते हम तो मनुष्यों की सवारी करते हैं।
राजा ने बोला: गुरू जी, ठीक है जैसी आप की इच्छा है। आप मनुष्य की पीठ पर विराजें
और चलें। गुरुदेव ने कहा: हमारे कहने का तात्पर्य है कि पशु प्रवृति वाले शरीरों पर
हम कैसे अधिकार पाकर उनका सँचालन कर पाएँगे हमें तो मानव प्रवृति वाला कोई शरीर मिले
जिस के हृदय पर हम शासन करके यह यात्रा करें। यह सुनकर राजा शिवनाम बोला: गुरुदेव !
हम अल्प बुद्धि वाले हैं। आप आज्ञा करें तो मैं ही आपका घोड़ा बन जाता हूँ। गुरुदेव
ने कहा: यही ठीक रहेगा। हम आज से तुम्हारे हृदय रूपी घोड़े पर नाम रूपी चाबुक लगाकर
सवारी करेंगे। अतः तुम भी हमारी आज्ञा अनुसार यहाँ सतसंग के लिए एक धर्मशाला बनवाओ
जिसमें हम कीर्तन द्वारा हरियश रूपी अमृत भोजन बाँटा करेंगे। धर्मशाला बनवाने के
लिए तत्काल आदेश दिया गया जिसे स्थानीय परम्परा अनुसार बाँस तथा बैंत का तैयार करवा
लिया गया। उसमें गुरुदेव प्रतिदिन कीर्तन तथा प्रवचन करने लगे। जिज्ञासु अलग-अलग
विषयों पर गुरुदेव से प्रश्न करते, जिनका समाधान करते हुए गुरुदेव कहते यदि मनुष्य
अपने जीवन का मुख्य लक्ष्य जान जाए तो उसकी प्राप्ति की तैयारी करने पर बाकी की
समस्यायों का समाधान स्वयँ हो जाएगा। वास्तव में मानव का इस मृत्युलोक में आने का
प्रयोजन है, शुभ कर्म कर, प्रभु पारब्रह्म परमेश्वर के साथ हो चुकी दूरी को समाप्त
कर, उसमें पुनः अभेद हो जाना इसलिए मानव हृदय में उसकी याद सदैव बनी रहनी चाहिए तथा
कब मिलन होगा एक तड़प होनी चाहिए।
दरसन की पिआस जिसु नर होइ ।। एकतु राचै परहरि दोइ ।।
दूरि दरदु मथि अंम्रितु खाइ ।। गुरमुखि बूझै एक समाइ ।।1।।
तेरे दरसन कउ केती बिललाई ।।
विरला को चीनसि गुर सबदि मिलाइ ।। 1 ।। रहाउ ।।
राग बसंत, अंग 1188
अर्थ: हे परमात्मा बेअंत लोग तेरे दर्शन के लिए कुरलाते हैं,
बिललाते हैं, पर कोई विरला ही गरू शब्द में जुड़कर तेरे स्वरूप को पहचानता है। जिसमें
परमात्मा के दर्शनों की प्यास होती है वो प्रभु के बिना और आसरे की आस छोड़कर, एक
परमात्मा के नाम में मसत रहता है। गुरुदेव का समस्त कार्य क्षेत्र एक विशेष लक्ष्य
की प्राप्ति के लिए, केवल मन को साधने की नियमावली दृढ़ करवाना था। अतः आपने बताया
कि बाहरी भेष कर्म-काण्ड, मूर्ति पूजा के आडम्बर इत्यादि सभी कुछ व्यक्ति को उलझाकर
भटकने पर विवश कर देते हैं, तथा व्यक्ति उनमें खो जाता है और मुख्य उद्देश्य से भटक
जाता है। इसलिए उसे सदैव सावधान रहते हुए युक्ति से तर्कसंगत कार्य करने चाहिए।
अँधविश्वासी आवागमन के चक्र से नहीं छूट सकता, क्योंकि वह विवेक बुद्धि से काम नहीं
लेता। बिना विवेक के प्रभु प्राप्ति असम्भव है। गुरुदेव के ऐसे उपदेशों ने वहाँ पर
क्रांति ला दी। प्रत्येक स्थान पर जागृति का प्रचार-प्रसार दिखाई देने लगा। लोग
परम्परा अनुसार मूर्ति पूजा का कर्मकाण्ड त्यागकर एक ईश्वर के चिन्तन, मनन में
व्यस्त रहने लगे। परन्तु रूड़िवादी विचारों वाले लोगों ने आपत्ति की, कि वे तो उनका
परम्परागत ढँग का त्याग करने में असमर्थ हैं, जब तक कि इस विषय पर एक विचार गोष्ठी
का आयोजन नहीं किया जाता। गुरुदेव जी यह संदेश पाकर बहुत प्रसन्न हुए, अब वहाँ के
निवासी प्यार से उन्हें आचार्य नानक कह कर बुलाने लगे। वे पहले से ही इस विचार
विमर्श के इच्छुक थे। विरोधी पक्ष ने अपने सभी विद्वानों और पण्डितों को आमँत्रित
किया और शास्त्रार्थ, अनुराधपुरम में होना निश्चित हुआ। परन्तु समस्या सामने यह आई
कि अंतिम निर्णय कौन करेगा। पण्डितों का मत था कि बहुमत जिसके पक्ष में हो वही विजयी
होगा। परन्तु गुरुदेव का कहना था कि जिनके पक्ष में तर्क अच्छे हों तथा अकाट्य तथ्य
हो वही विजयी होगा। पण्डित इस बात पर सहमत नहीं हुए क्योंकि वह जानते थे कि गुरुदेव
जी की अकाट्य तर्क शक्ति के समक्ष वह टिक नहीं सकते। वह तो केवल अपने बहुमत से ही
विजयी होना चाहते थे। अतः प्रतियोगिता स्थगित कर दी गई क्योंकि दोनों पक्ष सहमत न
हो सके कि निर्णय किस विधि अनुसार हो। उधर गुरुदेव का कथन था कि भेड़ों की गिनती
सदैव अधिक होती है शेरों की नहीं अर्थात मूर्खों की गिनती सदैव अधिक रही है,
विद्वानों की नहीं। गुरुदेव ने राजा शिवनाभ तथा वहाँ के निवासियों को गुरमति दृढ़
करवाकर आगे के लिए प्रस्थान की तैयारी कर दी तो राजा और उसकी रानी चँद्रकला ने
गुरुदेव से अनुरोध किया कि वे वहाँ से न जाएँ। किन्तु गुरुदेव ने उन्हें साँत्वना
देते हुए कहा कि यह शरीर तो नाशवान है इसके लिए आपको मोह-ममता नहीं करनी चाहिए। रानी
ने तब कहा कि हम आपका वियोग सहन नहीं कर पाएँगे, अब आपके दर्शन कैसे होंगे ?
गुरुदेव ने तब कहा कि मेरा वास्तविक स्वरूप तो मेरी बाणी है वही मेरा निरगुण स्वरूप
है। यदि आप नित्यप्रति साधसंगत में शब्द कीर्तन सुनेंगे तो हम प्रत्यक्ष होंगे तथा
आपका हमारे साथ सम्पर्क सदैव स्थापित रहेगा।