33. समय/श्वासों के सदुपयोग पर बल (कालीकट,
कर्नाटक)
श्री गुरू नानक देव जी पालघाट से अन्नामलाई पर्वत श्रृँखला में
से होते हुए समुद्र तट पर कालीकट पहुँचे। यह स्थान अरब सागर के तट पर एक प्रसिद्ध
बन्दरगाह है। उन दिनों वहाँ पर विदेशों से छोटे-छोटे जहाज व्यापार के लिए आते-जाते
थे। अतः वहाँ के निवासियों की आर्थिक दशा बहुत अच्छी थी। धन की कमी न होने के कारण
अधिकाँश लोग ऐश्वर्य का जीवन जीते थे। इसलिए उनका लक्ष्य, खाना-पीना तथा मौज मस्ती
मनाना मात्र ही था। अतः उनके जीवन में आध्यात्मिकवाद नहीं था अर्थात वे नास्तिक
जीवन जीते थे। गुरुदेव ने कहा कि बिना उद्देश्य के जीवन जीने वाले भटकती हुई आत्माएँ
हैं, जो कि अपनी अमूल्य श्वासों की पूँजी व्यर्थ गवाकर जुआरी की तरह खाली हाथ वापस
लौट जाते हैं। प्रभु द्वारा रचित उपहार में दी गई अद्भुत काया फिर दुबारा नहीं मिलती।
इसलिए समय को सफल बनाने के लिए उसका सदुपयोग करने की प्रेरणा दी।
सउ ओलामे दिनै के राती मिलनि सहंस ।।
सिफति सलाहणु छडि कै, करंगी लगा हंसु ।।
फिटु इवेहा जीविआ जितु खाइ वधाइआ पेटु ।।
नानक सचे नाम विणु सभो दुसमनु हेतु ।। राग सूही, अंग 790
गुरुदेव ने समुद्र तट पर एक पर्यटक स्थल पर नारियल के वृक्षों
के नीचे कीर्तन करते हुए उन धनी पुरुषों को सम्बोधित करते हुए कहा कि सभी प्राणी यह
नहीं जानते कि उनके पास श्वासों की पूँजी कितनी है। इसलिए विचार करके देखना चाहिए
कि मानव शरीर धारण करने का मुख्य प्रयोजन क्या है ? कहीं ऐसा न हो कि श्वासों की
पूँजी बिना कारण नष्ट हो जाए और फिर खाली हाथ जाना पड़े।
हम आदमी हां इक दमी मुहलति मुहतु न जाणा ।।
नानकु बिनवै तिसै सरेवहु जाके जीअ पराणा ।। 1 ।।
अंधे जीवना वीचारि देखि केते के दिना ।। रहाउ ।। 1 ।।
राग धनासरी, अंग 660