32. पशु वध, बली की निंदा (पालघाट,
कर्नाटक)
श्री गुरू नानक देव जी बेंगलूर से पालघाट पहुँचे। इस नगर में
जनार्दन नाम का एक बहुत प्रसिद्ध शिव मन्दिर है। वहाँ पर उपासना के नाम पर पशु बलि
चढ़ाते थे। वह क्षेत्र नीलगिरी पर्वत श्रृँखला के आदिवासी क्षेत्र में स्थित है।
स्थानीय लोग अपने इष्ट की उपासना के लिए भैंस का वध करते हैं तथा उसके माँस को
प्रसाद रूप से बाँटकर खुशियां मनाते हैं। गुरुदेव ने इस तरह के निम्न स्तर की पूजा
विधि को देखकर बहुत रोष प्रकट किया तथा कहा कि समस्त जीव-जन्तु, पशु-पक्षी इत्यादि,
प्रभु-परमेश्वर की ही उत्पत्ति हैं अर्थात सब प्राणियों का पिता वह स्वयँ है, फिर
ऐसे पिता के समक्ष उसके पुत्र का वध करके उसे कैसे प्रसन्न कर सकते हैं ? इस प्रश्न
का उत्तर वहाँ के आदिवासियों के पास न था। अतः विचारों के आदान प्रदान में वे लोग
गुरुदेव को सँतुष्ट नहीं कर पाए। उस समय गुरुदेव ने भाई मरदाना जी को आदेश दिया,
सुर साधो तथा कीर्तन प्रारम्भ करो क्योंकि प्रभु की तरफ से बाणी आ रही है। फिर क्या
था सभी वाद्य साधे गए और गुरुदेव ने उच्चारण आरम्भ किया:
दूरि नाही मेरो प्रभु पिआरा ।।
सतिगुर बचनि मेरो मनु मानिआ हरि पाए प्रान अधारा ।। 1 ।। रहाउ ।।
इन विधि हरि मिलीऐ वर कामनि धन सोहागु पिआरी ।।
जाति बरन कुल सहसा चूका गुरमति सबदि बीचारी ।।
जिसु मनु मानै अभिमानु न ताकउ हिंसा लोभु विसारे ।।
सहजि रवै वरु कामणि पिर की गुरमुखि रंगि सवारे ।।
राग सारंग, अंग 1197
अर्थ: हे भक्तजनों सर्वप्रथम उस "प्रभु के गुणों" को जानने की
आवश्यकता है। जब प्रभु के गुणों का अध्ययन करके उसके नियमों के अनुसार जीवन व्यतीत
करेंगे तो सहज ही उसकी कृपा होगी। हमें इस बात का ज्ञान होना चाहिए कि वह दूर नहीं
प्रत्येक स्थान पर विद्यमान है। जिस समय भक्तजन स्वयँ को प्रभु परमेश्वर रूपी पति
की स्त्री मानकर प्रत्येक प्रकार के अवगुण त्यागकर, जाति, वर्ण, कुल इत्यादि के भेद
समाप्त कर, विशेषकर हिंसा, लोभ, अभिमान को त्यागकर, विनम्र भाव से सतगुरू के पूर्ण
ज्ञान के प्रकाश में मन पर नियन्त्रण करेंगे तो ज्योति स्वरूप महाशक्ति का उनमें
प्रकाश धीरे-धीरे सम्भव हो जाएगा और वह आँनदित होकर पति मिलन की अनुभुति प्राप्त
करेंगे।