31. मधुर सँगीत की महिमा (बेंगलूर,
कर्नाटक)
श्री गुरू नानक देव जी इस तरह उपदेश देते हुए बेंगलूर पहुँचे।
जो कि उन दिनों भी दक्षिण भारत का सबसे बडा व्यापारिक केन्द्र था। वहाँ पर छोटे-छोटे
कुटीर उद्योग होने के कारण आसपास से लोगों का आवागमन बहुत बडी सँख्या में होता रहता
था। अतः उस नगर में स्थान-स्थान पर भिन्न-भिन्न मतावलम्बियों के धर्म मन्दिर, विशाल
भवनों के रूप में विद्यमान थे। जिनमें विभिन्न प्रकार से केवल मूर्ति पूजा होती थी
तथा कहीं-कहीं कर्नाटक सँगीत में काल्पनिक भजन गाये जाते थे। स्थानीय लोग विशेष रूप
से अपने इष्ट की प्रतिमा के समक्ष सामूहिक रूप में नृत्य करते और प्रतिमा पर फूल
मालाएँ चढाकर तथा धूप बत्ती करते हुए अपने को धन्य समझते थे। किन्तु आध्यात्मिक
ज्ञान की खोज में विचारविमर्श नहीं करते थे कि मन की शुक्ति कैसे हो तथा उस
एकेश्वर-निराकार ज्योतिस्वरूप प्रभु से कैसे मिलन हो। अतः वहाँ पहुँचकर गुरुदेव जी
ने स्थानीय सँगीतकारों के सामने जब अपने कीर्तन का प्रदर्शन किया तो वे स्तब्ध रह
गए कि शाँत सहज धुनों में प्रभु स्तुति करने से मन एकाग्र होकर प्रभु चरणों में लीन
होता है। गुरुदेव ने जनसाधारण को अपने प्रवचनों द्वारा समझाया कि सँगीत दो प्रकार
का होता है। पहले प्रकार के तीव्र गति के सँगीत से केवल शरीर ही झूम सकता है जिसे
आप नृत्य कला में प्रयोग करते हैं तथा कथकली इत्यादि नृत्य में दक्षता प्राप्त करते
हैं। परन्तु दूसरे प्रकार के शाँत मधुर शास्त्रीय सँगीत से शरीर के स्थान पर मन और
आत्मा दोनों झूमती हैं। इस प्रकार सुरति एकाग्र होकर प्रभु चरणों में लीन हो जाती
है जिससे व्यक्ति समाधि से शून्य अवस्था में आ सकता है जो कि आनँदमयी आत्मिक
अनुभूतियाँ प्राप्त कर सकने में सहायक होता है। आध्यात्मिक दुनिया में शरीर गौण है
वहाँ केवल मन की एकाग्रता तथा उसकी शुद्धता को ही प्राथमिकता प्राप्त होती है।
इसलिए चँचल प्रवृतियों के गीत तथा सँगीत धार्मिक स्थानों पर वर्जित होने चाहिए नहीं
तो प्राप्तियों के स्थान पर कुछ खोना पड़ सकता है। इस बात को गुरू जी ने गुरूबाणी
में कहा:
वाजा मति पखावजु भाउ ।। होइ अनंदु सदा मनि चाउ ।।
एहा भगति एहो तप ताउ ।। इतु रंगि नाचहु रखि रखि पाउ ।।
पूरे ताल जाणै सालाह ।। होरु नचणा खुसीआ मन माह ।। 1 ।। रहाउ ।।
सतु संतोख वजहि दुइ ताल ।। पैरी वाजा सदा निहाल ।।
रागु नाद नही दूजा भाउ ।।
इतु रंगि नाचहु रखि रखि पाउ ।। 2 ।। राग आसा, अंग 350