30. देव दासी प्रथा की निंदा (मैसूर
नगर, कर्नाटक)
श्री गुरू नानक देव जी पाणाजी से दक्षिण की ओर बढ़ते हुए मैसूर
नगर में एक भव्य मन्दिर में पहुँचे। आप जी ने वहाँ पर साधारण जनता की निर्धनता देखी।
उसके विपरीत मन्दिरों में अपार धन सम्पदा तथा वैभव देखा। तो इस असन्तुलन पर आप जी
बहुत क्षुब्ध हुए। आप वहाँ पहुँचें, तब स्थानीय राजा राजकीय मन्दिर में पूजा अर्चना
करने के लिए एक विशेष दिन अपने परिवार सहित पधारे। वहाँ के पुजारियों ने तब उनका
भव्य स्वागत करने के लिए एक विशेष नियमावली अपनाई। मन्दिर के मुख्यद्वार की सड़क के
दोनों किनारों पर फूलों की वर्षा करती हुई देवदासियों की लम्बी कतारें लगाई गई और
महाराज की जय हो इत्यादि नारे बुलँद किए गए। मन्दिर में इस प्रकार के राजकीय स्वागत
के आयोजन को देखकर, आडम्बर के विरुद्ध गुरुदेव कह उठे:
दर घर महला सोहणे पके कोट हजार ।।
हसती घोड़े पाखरे लसकर लख अपार ।।
किसही नालि न चलिआ खपि खपि मुए असार ।।
सोइना रुपा संचीऐ मालु जालु जंजालु ।।
सभ जग महि दोही फेरीऐ बिनु नावै सिरि कालु ।।
पिंडु पड़ै जीओ खेलसी बदफैली किआ हालु ।। सिरी राग, अंग 63
अर्थ: प्रभु की कृपा के पात्र बनने के लिए नम्रता धारण करके एक
भिखारी रूप में आना चाहिए। परन्तु इसके विपरीत राज शक्ति के प्रदर्शन से कोई भी
प्राप्ति नहीं हो सकती। प्राप्ति तो हरि नाम स्मरण में है न कि बदफैली कामुक
मोहिनियों से स्वागत कराने में। गुरुदेव ने देव दासी प्रथा का कड़ा विरोध किया और कहा,
लोग धर्म का नाम लेकर समाज में कुरीतियाँ तथा अनैतिकता का प्रचार-प्रसार कर रहे
हैं। विलासिता के यह सब साधन समाज को पतन के गहरे कुएँ में धकेल रहे हैं। गुरूबाणी
सुनकर राजा बहुत प्रभावित हुआ।