29. भिक्षा-पैतृक विरासत का अपमान (पाणाजी,
गोआ)
श्री गुरू नानक देव जी रँगपट्टम से गोआ प्रदेश के पाणाजी नगर
में समुद्र तट पर पहुँचे। वह स्थल प्राकृतिक सौन्दर्य से मालामाल है तथा उसकी छटा
देखते ही बनती है। गुरुदेव उन रमणीक स्थलों में समाधिस्थ हो गए, जब समाधि से उत्थान
किया तो प्रभु स्तुति में गाने लगे। भाई मरदाना जी भी आपके साथ ताल मिलाकर संगीत की
बँदिश में रबाब बजाने लगे। मधुर, हृदय-भेदक बाणी सुनकर पर्यटक भी धीरे-धीरे इकट्ठे
होते चले गए, जिससे श्रोताओं का समूह इकट्ठा हो गया। उस समय गुरुदेव उच्चारण कर रहे
थे:
अलाहु अलखु अगंमु कादरु करणहारु करीमु ।।
सभ दुनी आवण जावणी मुकामु एकु रहीमु ।।
मुकामु तिसनो आखीऐ जिसु सिसि न होवी लेखु ।।
असमानु धरती चलसी मुकामु ओही एकु ।।
दिन रवि चलै निसि ससि चलै तारिका लख पलोइ ।।
मुकामु ओही एकु है नानका सचु बगोइ ।। राग सिरीराग, अंग 64
जिज्ञासुयों ने शब्द की समाप्ति पर रचना के अर्थ जानने चाहे तो
गुरुदेव ने कहा, इस धरती पर सभी लोग सैलानी अर्थात यात्री हैं, सबने एक दिन यहाँ से
चले जाना है परन्तु अल्लाह, ईश्वर ही यहाँ स्थायी निवास करता है, क्योंकि धरती,
सूर्य, चन्द्रमा और तारे यह सब भी चलाएमान है। प्राणी मात्र की तो बात ही क्या है ?
सभी जिज्ञासु बहुत प्रभावित हुए उन्होंने गुरू जी के आगे बहु-मूल्य उपहार रख दिये
किन्तु गुरू जी ने उन्हें अस्वीकार कर दिया। एक जिज्ञासु कहने लगा: कि गुरुदेव जी !
यह उपहार आप क्यों नहीं स्वीकार करते जबकि दूसरे साधु तो कई बार यहाँ से वस्तुएं
माँगकर ले जाते देखे गए हैं। और यहाँ कुछ दूरी पर उनका आश्रम है जहां से वह भिक्षा
माँगने अक्सर आते हैं। मैं आपको उन से मिला सकता हूँ। गुरुदेव जी ने कहा: ठीक है,
हम स्वयँ जाकर उनका मार्ग दर्शन करेंगे। इतने में उसी आश्रम का एक कर्मकाण्डी
सँन्यासी वहाँ पर भिक्षा माँगने पहुँच गया। गुरुदेव ने उसे अपने पास बुला लिया और
भिक्षा माँगने का कारण पूछा ? सँन्यासी ने उत्तर दिया: कि हमारे आश्रम के
नियम-अनुसार सन्यास ग्रहण करने के लिए पूर्णतः गृहस्थ को त्यागकर शिक्षा प्राप्त
करनी होती है तथा शिक्षाकाल में भिक्षा माँगकर जीवन निर्वाह करना होता है। शिक्षा
पूर्ण होने पर प्रत्येक विद्यार्थी को सर्वप्रथम अपने गृह ही से भिक्षा माँगकर लानी
होती है, ताकि माँगने वाले में नम्रता आ जाए। यह सुनकर गुरुदेव ने कहा: कि यह धारणा
मिथ्या है कि माँगने से नम्रता आती है। इसके विपरीत माँगने से स्वाभिमान को आघात
पहुँचता है और मनुष्य कहीं का नहीं रहता। माँगने के लिए जो कुछ तुम गा रहे हो वह सब
ज्ञान रहित बातें हैं, ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार मुल्ला भूखा होने पर अपने घर को
मस्जिद बताता है। तुमने भी नखटू होने के कारण कानों में मुंद्रा डाली है और
रोज़ी-रोटी चलाने का ढोंग सँन्यासी बनकर निभा रहे हो, जिससे तुम्हारी पैंतृक विरासत
का भारी अपमान हो रहा है। कि भले घर का लड़का माँग कर खा रहा है। यहीं बस नहीं, फिर
तुम गुरू-पीर भी कहलवाना चाहते हो। किन्तु उसी की मर्यादा नहीं जानते कि इस बात के
लिए व्यक्ति को स्वाभिमान से जीवन जीना होता है, न कि दर-दर पर भिक्षा माँगकर
आत्मगौरव को मिट्टी में मिलाना। इसलिए किसी को भी तुम जैसे लोगों के पाँव नहीं छूने
चाहिए क्योंकि तुम लोग सभ्य समाज में स्वीकार्य नहीं हो, प्रभु चरणों में स्वीकार्य
होना तो एक अलग बात है। जो अपनी आजीविका परीश्रम से अर्जित करता है तथा ज़रूरतमँदों
को उसमें से कुछ भाग देता है वास्तव में वही सत्य मार्ग गामी है। गुरुदेव ने तब
उपरोक्त कही बातों का शब्द उच्चारण किया:
गिआन विहूणा गावै गीत ।। भुखे मुलां घरे मसीति ।।
मखटू होइ कै कंन पड़ाए ।। फकरु करे होरु जाति गवाए ।।
गुरु पीरु सदाए मंगण जाइ ।। ता कै मूलि न लगीऐ पाइ ।।
घालि खाहि किछु हथहु देइ ।। नानक राहु पछाणहि सेइ ।।