27. ज्ञान ही गुरू (जिला पूणे,
महाराष्ट्र)
श्री गुरू नानक देव जी ठाणा नगर से पूणे पहुँचे, वहाँ पर भीमा
नदी के किनारे ज्योति लिंग मन्दिर में अनियमितताएँ तथा अँधविश्वासों से जनसाधारण को
सावधान करते हुए कहने लगे, प्रभु प्राप्ति का सही मार्ग हृदय की पवित्रता है। जो
मनुष्य पवित्र हृदय से गुरू की शरण में नहीं जाता, उसे ईश्वर-प्राप्ति नहीं हो सकती।
क्योंकि गुरू की संगत से ही सत्याचरण वाले जीवन की प्राप्ति सम्भव है, अन्यथा
व्यक्ति बाहरी चिन्हों एवं वेशभूषा के आडम्बरों में भटकता रहता है।
बिनु सतिगुर किनै न पाइओ बिनु सतिगुर किनै न पाइआ ।।
सतिगुर विचि आपु रखिओन करि परगटु आखि सुणाइआ ।।
सतिगुर मिलिऐ सदा मुकतु है जिनि विचहु मोहु चुकाइआ ।।
उत्तमु एहु बीचारु है जिनि सचे सिउ चितु लाइआ ।।
जगजीवनु दाता पाइआ ।। राग आसा, अंग 466
अर्थ: किसी भी मनुष्य को "जगजीवन दाता" "गुरू के बिना नहीं मिला",
क्योंकि प्रभु ने अपने आप को रखा ही सतगुरू के अन्दर है। हमने यह बात सभी के खुल्लम
खुला बोल कर सुना दी है। अगर ऐसा गुरू मिल जाए तो मनुष्य माया मोह के बन्धनों से
आजाद हो जाता है। यह विचार बहुत ही सुन्दर है कि जिस इन्सान ने अपना मन गुरू से जोड़ा,
उसे जगजीवन दाता मिल जाता है। गुरुदेव के प्रवचनों तथा कीर्तन से भक्तगण बहुत
प्रभावित हुए। एक भक्त ने गुरू जी से प्रश्न किया: कि हे गुरु जी ! हम यह कैसे जाने
कि कोई व्यक्ति-विशेष ही पूर्ण सामर्थ्यवान गुरू है अर्थात वे ही सत्य से तदाकार
हुआ महापुरुष है ? गुरुदेव जी: आपका प्रश्न "प्रशंसनीय" है, क्योंकि "साधारण मनुष्य
के पास इतना प्रर्याप्त ज्ञान नहीं होता"। लोग तो भेषधारी व्यक्ति को ही वास्तविक
साधु समझ लेते है। जबकि बहुत से साधु तो वास्तव में स्वादु होते हैं जो कि बिना
परीश्रम के आजीविका अर्जित करने के लिए स्वाँग करते हैं। इसलिए किसी व्यक्ति विशेष
के शरीर को गुरू धारण करने की विचारधारा गलत है। क्योंकि समस्त मानवों में मानव
शरीर होने के कारण कहीं-न-कहीं त्रुटियाँ अवश्य मिलेंगी। अतः ज्ञान को गुरू मानना
चाहिए, साधसंगत में हरियश करते हुए ज्ञान प्राप्त हो सकता है, जहां पूर्ण समर्थशाली
महापुरुषों की रचनाओं का अध्ययन किया जाता हो। जिज्ञासु ने पुछा: गुरू जी, किसी
शरीर को गुरू न माना जाए ? गुरुदेव जी: "यह शरीर नाशवान है", आज है कल नहीं, क्योंकि
शरीर नाशवान है अतः ज्ञान को ही गुरू मानना है जो कि आत्मा का अमर अंग है।