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24. जमीदार द्वारा शौषण (सूरत नगर, गुजरात)

श्री गुरू नानक देव जी ने अपनी दक्षिण यात्रा के समय जिला सूरत के एक देहात में विश्राम किया। आप जी वहाँ पर एक तलाब के किनारे बेड़ के वृक्ष के नीचे प्रातः काल हरियश में कीर्तन कर रहे थे तो कुछ किसान आपके पास आए। और विनती करने लगे: कि गुरू जी हम तो लुट गए, हम कहीं के नहीं रहे। हमारा परिवार अब तो भूखा मर जाएगा। हमें दर-दर की ठोकरें खाने के लिए विवश कर दिया गया है। गुरुदेव जी ने उन्हें साँत्वना दी और कहा: कृप्या आप धैर्य रखें, करतार भली करेगा। वह सबका रिज़क दाता है। वह किसी न किसी रूप में सभी का पालन करता है। उस पर पूर्ण विश्वास रखना चाहिए। किन्तु किसान इतने भयभीत थे कि वे सब डरे हुए सिसक-सिसककर रो पड़े। और कहने लगे: इस वर्ष, "वर्षा की कमी के कारण" फसल अच्छी नहीं हुई। जो थोड़ा बहुत अनाज हुआ था वह हमारे परिवार के लिए भी बहुत कम था। किन्तु यहाँ का जमींदार तथा उसके लट्ठधारी कर्मचारी पूरा अनाज ज़ौर जबरदस्ती हम से छीन ले गए है तथा हमें मारा पीटा है और हमारा अपमान किया है। इस अत्याचार की गाथा सुनकर गुरुदेव गम्भीर हो गए तथा इस समस्या के समाधान के लिए योजना बनाने लगे। उन्होंने नन्हे बच्चों को, जो भूख से बिलख रहे थे, साथ लिए और सभी किसानों को अपने पीछे आने का सँकेत किया। गुरुदेव ने जमींदार की हवेली के बाहर भाई मरदाना जी को कीर्तन प्रारम्भ करने के लिए कहा और आप जी स्वयँ वाणी उच्चारण करने लगे:

जे रतु लगै कपड़ै जामा होइ पलीतु ।।
जो रतु पीवहि माणसा तिन किउ निरमलु चीतु ।।
नानक नाउ खुदाइ का दिलि हछै मुखि लेहु ।।
अवरि दिवाजे दुनी के झूठे अमल करेहु ।। राग माझ, अंग 140
इसका अर्थ नीचे है।

कीर्तन की मधुर ध्वनि सुनकर जमींदार की हवेली से उसके लट्ठदारी कर्मचारी आ गए। हवेली के बाहर का दृश्य देखकर वे तुरन्त जमींदार को बुला लाने को गये और कहा कि उन किसानों का पक्ष लेकर एक फ़कीर आपके विरुद्ध आँदोलन चलाने के लिए आपके घर का घेराव किए हुए हैं तथा गाकर काव्य रूप में व्यँग मार रहा है। यह सुनकर जमींदार आगबबूला हो उठा और स्वयँ न आकर पत्नी को भेजा कि वह जाकर ठीक से ज्ञात करे कि कौन है जो उसके विरुद्ध दुस्साहस करके उसे चुनौती दे रहा है ? जमींदार की पत्नी ने जब गुरुदेव को आनँदमय अवस्था में प्रभु चरणों में लीन पाया और उनके मुख से भावपूर्ण बाणी सुनी तो उसके मन में विचार बना कि वह फ़कीर लोग तो परोपकारी दिखाई देते हैं, इनका किसानों के पक्ष में होना निः स्वार्थ है तथा वह जो भी कह रहे हैं उसमें सत्य है। भले ही सत्य कड़वा लग रहा है, परन्तु उनके कथन में तथ्य है। अतः उनको अवश्य सुनना चाहिए, जल्दी में कोई गलत निर्णय नहीं लेना चाहिए। यह सोचकर वह कुछ देर रुककर लौट गई तथा नम्रतापूर्वक आग्रह करके अपने पति को वहाँ ले आई। और कहा कि वह भी कम से कम उन्हें प्रत्यक्ष देखकर कोई उचित निर्णय लें। क्योंकि फ़कीरों की रहस्यमय बातों में कोई अर्थ होता है। वे यूँ ही किसी का पक्ष नहीं लेते। पत्नी से सहमत होकर, वह उसके साथ ही गुरुदेव के दर्शनों के लिए पहुँचा। उस समय गुरुदेव प्रभु स्तुति में लीन होकर शब्द में सुरति रमाए बाणी उच्चारण कर रहे थे। जमींदार ने सोचा कि वह वास्तव में दुनियां के दिखावे मात्र के लिए कई प्रकार से धन के वैभव का प्रदर्शन करके धर्मी होने का स्वाँग करता है, परन्तु धर्म क्या है ? इस बात का कभी विश्लेषण नहीं करता। यदि वह उनके कथन अनुसार हृदय की पवित्रता को धर्म का आवश्यक अँग मान ले तो अब तक जो किया है, वह सब गलत था। क्योंकि उनके पीछे उसका व्यक्तिगत निहित स्वार्थ अवश्य था। उसने कुछ सोचते हुए अपनी पत्नी से कहा: कि तुम पुनः जाओ और पूछो, फ़कीर क्या चाहते है ? उसकी पत्नी आज्ञा पाकर गुरुदेव के पास गई एवं विनम्रता पूर्वक कहने लगी: हे साईं जी ! आप हमारे यहाँ आए हैं। हमारे धन्य भाग्य है, किन्तु आपका यहाँ आने का क्या प्रयोजन है, कृपया हमें अवगत कराएं। गुरुदेव ने तब कहा: हे देवी ! आप सब कुछ देख-समझ रही हैं। इन दूध पीते मासूम बच्चों का निवाला भी तुम्हारे करिन्दे इनसे छीन लाए हैं। इन किसानों की खून पसीने की कमाई, जो कि इनके कड़े परीश्रम की देन है, इनके काम नहीं आ रही। एक तरफ यह श्रमिक भूखे प्यासे हैं, दूसरी तरफ आपको सभी कुछ तो उस प्रभु ने दिया है। आपके यहाँ किसी वस्तु का अभाव नहीं। अतः न्याय होना चाहिए। यह तर्क सुनते ही उस कुलीन भद्र महिला का सिर झुक गया। उसने सँकेत से अपने स्वामी को तुरन्त पास बुला लिया तथा गुरुदेव के साथ परामर्श करने का आग्रह करने लगी। जमींदार के आने पर गुरुदेव प्रवचन करने लगे, (उपरोक्त बाणी का अर्थ) हे मानव ! इस पर विचार करो। यदि कपड़ों पर खून का धब्बा लग जाए तो उसे अपवित्र मान लेते हैं, किन्तु वह लोग जो अपने अधिकारों का दुरोपयोग कर गरीब जनता का खून पीते हैं उनका हृदय कैसे पवित्र हो सकता है ? यदि सच्चे अर्थों में धर्मी बनना चाहते हो तो बड़प्पन को त्यागकर हृदय की पवित्रता पर बल दो और उस प्रभु की प्रसन्नता प्राप्त करो क्योंकि इन गरीबों के हृदय में उसी का निवास है। जमींदार को अपनी भूल का एहसास हुआ उसने तुरन्त अपने कारिन्दों को आदेश दिया कि उन किसानों से छीना गया अनाज तथा मवेशी लौटा दिये जाए तथा उसने गुरुदेव से अपने प्रायश्चित के लिए क्षमा याचना की। गुरुदेव ने कहा, यहाँ एक धर्मशाला बनवाएँ जिसमें प्रतिदिन हरियश के लिए साधसंगत इकट्ठी होकर शुभ कर्मों के लिए प्रभु से अर्शीवाद माँगे। इसी में सभी का कल्याण होगा। वह जमींदार भी गुरुदेव का अनुयायी बन गया तथा गुरू दीक्षा प्राप्त करके सिक्ख धर्म यानि मानवता के धर्म में प्रवेश किया।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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