23. महाजन द्वारा शोषण (बड़ोदरा नगर,
गुजरात)
श्री गुरू नानक देव जी साबरमती की संगत से आज्ञा लेकर आगे
दक्षिण की ओर बढ़ते हुए अपने साथियों सहित बड़ोदरा नगर पहुँचे। यह स्थान इस क्षेत्र
का बहुत विकसित नगर था। परन्तु अमीर-गरीब के बीच की खाई कुछ इस कदर ज्यादा थी कि धनी
व्यक्ति धन का दुरुपयोग करके गरीबों को दास बनाकर, ऐश्वर्य का जीवन व्यतीत करते थे।
इसके विपरीत निर्धन व्यक्ति बहुत कठनाई से दो समय का भरपेट भोजन जुटा पाते थे।
कहीं-कहीं तो गरीब कभी-कभी भूखे मरने पर भी विवश हो जाते। गुरुदेव ने जब जनसाधारण
की यह दयनीय दशा देखी तो वह व्याकुल हो उठे। उनको एक व्यक्ति ने बताया कि गरीबी के
तो कई कारण है। जिसमें सम्पति का एक समान बटवारा न होना। दूसरा बडा कारण, यहाँ का
महाजन आड़े समय में गरीबों को ब्याज पर कर्ज़ देता है जो कि गरीब कभी भी चुकता नहीं
कर पाते, जिस कारण गरीबों की सम्पति धीरे-धीरे महाजन के हाथों गिरवी होने के कारण
जब्त हो जाती। वैसे महाजन अपने आपको बहुत धर्मी होने का दिखावा भी करता है तथा
त्यौहार पर भण्डारा भी लगाने का ढोंग रचता है। इस समस्या के समाधन हेतु गुरुदेव ने
एक योजना बनाई और अगली सुबह महाजन के मकान के आगे कीर्तन आरम्भ कर दिया तथा स्वयँ
उच्च स्वर में गाने लगे:
इसु जर कारणि घणी विगुती इनि जर घणी खुआई ।।
पापा बाझहु होवै नाही मुइआ साथि न जाई ।। राग आसा, अंग 417
इसका अर्थ नीचे दिया गया है।
उस समय महाजन घर के उस स्थान पर चारपाई लगाकर सो रहा था, जहां
धरती में धन गाढ़ा हुआ था। जैसे ही मधुर बाणी का रस उसके कानों में गूँजा, वह उठा और
शौच-स्नान से निवृत होकर फूल लेकर गुरू चरणों में उपस्थित हुआ। गुरुदेव ने उसे बैठने
का सँकेत किया। वह स्वयँ भी प्रतिदिन घर पर मूर्तियों के आगे धूप-अगरबत्ती जलाकर
भजन गाता था। किन्तु आज उसे साधु संगत में गुरुबाणी सुनकर, अपने कार्यो के पीछे
अनुचित धँधे स्पष्ट दिखाई देने लगे। अतः उसके मन में विचार आया कि गुरू जी सत्य ही
कह रहे हैं तथा उसके कर्मों को जानते हैं कि वह गरीबों का शोषण करके, उनसे गलत
हथकण्डों से धन सँचित करके धर्मी होने का ढोंग करता है। कीर्तन समाप्ति पर गुरुदेव
ने प्रवचन प्रारम्भ किया कि यदि कोई मनुष्य मन की शाँति चाहता है तो उसके सभी कार्यों
में सत्य होना आवश्यक है नहीं तो उसके सभी धर्म-कर्म निष्फल जाएंगे क्योंकि उसके
हृदय में कपट है वह दीन-दुखी के हृदय को ठेस पहुँचाकर उसकी आह लेता है जिससे प्रभु
रूठ जाते हैं। क्योंकि प्रत्येक प्राणी के हृदय में उस प्रभु का वास है। अतः दया ही
वास्तविक धर्म है। यदि कोई प्राणी प्रभु की खुशी प्राप्त करना चाहता है, तो उसे
चाहिए कि वह समाज के निम्न तथा पीड़ित वर्ग की यथा शक्ति निष्काम सहायता करे। वास्तव
में यह धन सम्पत्ति मृत्यु के समय यहीं छूट जाएगी जिसको कि प्राणी ने अनुचित कार्यों
अर्थात पाप कर्मों द्वारा सँग्रह किया होता है। यह सुनकर महाजन से न रहा गया। वह
गुरुदेव के चरणों में गिर पड़ा तथा कहने लगा, गुरू जी मुझे क्षमा करें। मैं बहुत
गरीबों का शोषण कर चुका हूँ। मेरे पास अनेक छोटे-छोटे किसानों की जमीनें तथा गहने
गिरवी पड़े हैं, जिन्हें मैं आपकी शिक्षा ग्रहण करते हुए वापस लौटा देना चाहता हूँ।
क्योंकि मेरा मन सदैव अशाँत रहता है तथा मुझे रात भर नींद भी नहीं आती। गुरुदेव ने
कहा, यदि आप ऐसा कर देंगे तो आप पर प्रभु की अपार कृपा होगी। बाकी का जीवन भी आप
आनँदमय जी सकोगे। महाजन ने गुरुदेव की आज्ञा प्राप्त करके सभी की जमीनें तथा आभूषण
लौटा दिये तथा आदेश अनुसार धर्मशाला बनवाकर साधसंगत में हरियश सुनने लगा। जैसे ही
साधसंगत की स्थापना हुई वहाँ की अधिकाँश जनता गुरुदेव जी की अनुयायी बनकर नानक पँथी
कहलाने लगे।