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21. सतसंगत की महिमा (भावनगर, गुजरात)

श्री गुरू नानक देव जी पालिताणा में सरेवड़ों के मन्दिर से होते हुए भावनगर पहुँचे। वहाँ पर भी विशाल मन्दिर है। गुरुदेव वहाँ पर भी एक रमणीक स्थल में कीर्तन करने में व्यस्त हो गए। मन्दिरों के दर्शनार्थी कीर्तन सुनने में वहीं लीन होकर आगे बढ़ना ही भूल गए। गुरुदेव से कीर्तन की समाप्ति पर कुछ जिज्ञासु आध्यात्मिक परामर्श की इच्छा करने लगे। एक साधु ने कीर्तन द्वारा दिए गए उपदेश पर गुरुदेव से प्रश्न किया, हे गुरदेव जी! आप जो बाणी उच्चारण कर रहे थे।

काइआ महलु मंदरु घरु हरि का तिसु महि राखी जोति अपार ।।
नानक गुरमुखि महलि बुलाइऐ हरि मेले मेलण हार ।।
राग मलार, अंग 1256

हे गुरुदेव जी, आपके कथन अनुसार तो हमारे भीतर ही प्रभु निवास करते हैं तथा यह काया ही उस प्रभु का मन्दिर है। जिससे मिलन करने की युक्ति ही पूर्ण गुरू से सीखनी है। इस का अर्थ हुआ, इन मन्दिरों भवनों के दर्शनों को आना व्यर्थ है ? उतर में गुरुदेव ने अपने प्रवचनों में कहा, आप के हृदय की भावना यदि यहाँ आकर प्रभु मिलन के लिए छटपटाती है तो यात्रा सफल है अन्यथा आपने धन, समय व्यर्थ में बरबाद करने के अतिरिक्त बिना कारण कष्ट भी उठाए हैं। जबकि प्रभु मिलन की विधि साधसंगत में प्रातः काल बैठकर हरियश करने या सुनने मात्र से प्राप्त हो सकती है। वास्तव में मन को साधने से प्रभु के कण-कण में विद्यमान होने का अनुभव प्राप्त होने लगता है। इसीलिए मन को साध लेने वाले व्यक्ति को साधु कहते हैं क्योंकि उस व्यक्ति विशेष ने कड़े प्रयत्नों से मन पर विजय प्राप्त करके चँचल प्रवृतियों पर अँकुश लगाकर उनका सद्-उपयोग करना सीख लिया होता है। यह कार्य हर गृहस्थी, गृहस्थ आश्रम में रहकर तथा सहज जीवन जीकर भी कर सकता है। किसी विशेष वेषभूषा के व्यक्ति का नाम साधु नहीं है। साधु तो केवल मन को साधने वाले व्यक्ति ही होते है। अतः जिसने मन को साधा है वह धीरे-धीरे अभ्यास करने से अपने हृदय रूपी मन्दिर में दिव्य ज्योति के दर्शन कर सकता है।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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