2. कुष्ट रोगी का उपचार (दीपालपुर, प0
पंजाब)
इस घटना के पश्चात् गुरुदेव दीपालपुर के लिए चल पड़े। जब आप वहाँ
पहुँचे तो वर्षा हो रही थी। बादलों के कारण समय से पहले ही सँध्या हो गई, शीत लहरों
के कारण जनजीवन शून्य सा हो गया था। सभी लोग अपने-अपने घरों में दरवाजे बन्द करके
विश्राम कर रहे थे। अतः गुरू जी को कहीं भी कोई ऐसी जगह नहीं मिली जहां रैन बसेरा
किया जा सके। अतः गुरुदेव ने भाई मरदाना जी को कहा कि चलो और आगे बढ़ते चलो। हमें एक
भक्त याद कर रहा है। आज हम उसके यहाँ ठहरेंगे। भाई जी मन ही मन में सोच रहे थे कोई
विशेष भक्त होगा जिसके यहाँ गुरुदेव ठहरना चाहते हैं, चलो, भूख बहुत लगी है वहीं
जाकर भोजन करेंगे। परन्तु गुरुदेव तो धीरे-धीरे पूरे नगर को पार कर गए, कहीं रुके
नहीं। अन्त में एक वीरान स्थल में एक टूटी सी झौपड़ी दिखाई दी, जिसमें टिमटिमाता
हुआ एक दीपक जल रहा था। गुरुदेव वहीं रुक गये तथा आवाज लगाई– सतकरतार-सतकरतार।।
अन्दर से दर्द से कराहने की आवाज आई और उसने कहा: आप कौन हैं ? मैं बीमार, कुष्ट
रोगी हूँ, मुझे संक्रामक रोग है, अतः मेरे निकट किसी का आना उसके लिए हितकर नहीं
है। किन्तु गुरुदेव ने उत्तर दिया: कि तुम इसकी चिन्ता न करो, हम तुम्हारी सहायता
करना चाहते हैं। उत्तर में कुष्ट रोगी ने कहा: कि जैसी आपकी इच्छा है, परन्तु मेरे
निकट बदबू के कारण कोई भी रुक नहीं पाता। गुरुदेव ने उस झौपडी के भीतर अपना थैला
इत्यादि रखा तथा भाई मरदाना जी से कहा: आप रबाब बजाकर कीर्तन प्रारम्भ करें, मैं आग जलाकर इस कुष्टी के उपचार के लिए पानी उबालकर दवा तैयार करता हूँ। तब गुरुदेव ने वहाँ
पड़े हुए मिट्टी के बर्तन में पानी उबाला तथा थैले में से निकाल कर उसमें एक विशेष
रसायन मिलाया। इस रसायन को गुनगुने पानी से गुरुदेव ने उस कुष्ट रोगी के घाव धोकर
मरहम-पट्टी कर दी। कुष्ट रोगी का दर्द शान्त हो गया। वह आराम अनुभव करने लगा तथा
भाई मरदाना द्वारा किए जा रहे कीर्तन में उसका मन जुड़ने लगा। उस समय गुरुदेव ने बाणी
उच्चारण की:
जीउ तपतु है बारो बार ।। तपि तपि खपै बहुत बेकार ।।
जै तनि बाणी विसरि जाइ ।। जिउ पका रोगी विललाइ ।।
राग धनासरी, अंग 661
अर्थ: अगर परमात्मा का नाम उसकी सिफत सलाह यानि तारीफ करने की
बाणी अगर दूर हो जाए, तो आत्मा बार बार दुखी होती है और दुखी हो-होकर और विकारों
में खपती रहती है। जो मनुष्य प्रभु की सिफत सलाह की बाणी भूल जाता है वो ऐसे बिलखता
है, जैसे कोढ़ के रोग वाला रोगी बिलखता है। अगले दिन कुष्ट रोगी ने गुरुदेव से कहा:
आपने मुझ पर बहुत बड़ा उपकार किया है, मेरे जैसे पीड़ित की आप ने पुकार सुनी है।
वास्तव में मेरे निकट कोई भी नहीं आता था। बदबू तथा सँक्रामक रोग के भय से मेरे लिए
खाना बाहर से ही फैंककर, मेरे परिवार के सदस्य चले जाते हैं। भाई मरदाना जी ने
कुष्ट रोगी से पूछा कि: यह कुष्ट रोग आपको किस प्रकार हो गया ? उत्तर में कुष्ट रोगी
ने कहा: मैं युवावस्था में दीपालपुर के एक गाँव का जमींदार था। धन की अधिकता के
कारण मैं विलासिता में पड़ गया। अतः मैं अपने अधिकारों का दुरोपयोग करके मनमानी करने
लगा। जिससे कई अबलाएँ मेरी वासना का शिकार हुई। मैंने कई सति औरतों का सतित्व भँग
किया। उन्हीं औरतों के श्राप से मुझे कुष्ट रोग हो गया। गुरुदेव ने कहा: कि प्रकृति
का तो यह अटल नियम है जो जैसा कर्म करेगा, वैसा ही फल पाएगा।
जेहा बीजै सो लुणै, करमा संदड़ा खेत ।।
जैसा बीजोगे वैसा ही फल पायोगे। बबूल के बीज बोने से आम के फल
तो मिलेंगे नहीं। भले ही देखने में बबूल के फल भी अति सुन्दर दिखाई देते हैं। उन पर
कहीं काँटे तो होते नहीं। परन्तु कांटे सूक्ष्म रूप में विद्यमान रहते हैं, जो कि
समय आने पर, उसका आकार बड़े होने पर, ही दिखाई देंगे। गुरुदेव ने आगे बात को समझाते
हुए कहा: हमारे शरीर तथा मस्तिष्क की प्रकृति ने अदभुत रचना बनाई है। मनुष्य की अपनी
विचारधारा का उसके शरीर पर उसी क्षण प्रभाव पड़ता है। हमारे मस्तिष्क में कुछ विशेष
प्रकार की ग्रंथियाँ हैं जो कि हमारी विचारधारा पर प्रतिक्रिया स्वरूप उत्तेजित
होकर एक विशेष प्रकार के तरल हारमोनस उत्पन्न करती हैं। उदाहरण के लिए जब हम भावुक
होते हैं तो रूदन से आँखों में आँसू उत्पन्न हो जाते हैं। जब हमारे में स्वादिष्ट
भोजन का लोभ जागता है तो मुँह में पानी आ जाता है। ठीक उसी प्रकार जब हम
मन-मस्तिष्क एकाग्र करके प्रभु नाम में लीन हो जाते हैं तो उस समय मस्तिष्क में एक
विशेष प्रकार की ग्रन्थियों द्वारा उत्पन्न रस, ‘अमृत’ होता है, जिससे व्यक्ति
विशेषतः आनंदित होता है तथा व्यक्ति तेज-प्रतापी और नीरोग हो जाता है। किन्तु इसके
विपरीत यदि कोई मनुष्य अपना ध्यान विकारों में केन्द्रित करके, उसमें सँलग्न रहता
है, तो उसके मास्तिष्क में विष उत्पन्न होता है। जिसके विषाणुओं से शरीर असाध्य रोगों
से पीड़ित हो जाता है। यह सुनकर कुष्ट रोगी कहने लगा: हे ! गुरुदेव जी, आप ठीक कह रहे
है। मैं धन-यौवन की आँधी में केवल विकारों की ही बातें सोचा करता था। यहाँ तक की
सँसारिक रिश्ते नातों का भी ध्यान नहीं करता था, बस एक ही धुन आठों पहर विलासिता की
समाई रहती थी, जिसके परिणामस्वरूप धीरे-धीरे मेरे शरीर में विष उत्पन्न हो गया और
जिसने मेरा शरीर गलाकर कुष्ट बना दिया। गुरुदेव ने कहा: यदि तुम "प्रायश्चित" करते
हो तो हम तुम्हें अमृत प्रदान करेंगे जिससे विष का प्रभाव जल्दी समाप्त हो जाएगा और
तुम नीरोग हो जाओगे। यह सुनकर कुष्ट रोगी ने उत्तर दिया: यदि आप मुझे इस "असाध्य
रोग" से मुक्ति दिलवाएँ तो मैं रहते जीवन सेवा-परोपकार में व्यतीत करूँगा।
गुरुदेव ने तब उससे वचन लेकर, उसे मन एकाग्र करके प्रभु चरणों
में लीन होने की विधि सिखाई तथा नाम दान दिया। जिससे प्रत्येक क्षण हरि-यश किया जा
सके तथा कहा कि यही एक मात्र युक्ति है। शरीर में अमृत उत्पन्न करने की, जिसके आगे
सभी प्रकार के विष तुरन्त प्रभाव हीन हो जाते हैं। गुरुदेव ने कुछ दिन उस कुष्ट रोगी
की मरहम-पट्टी जारी रखी तथा भाई मरदाना जी हरि-यश में कीर्तन का प्रवाह चलाते रहे।
यह सब देखकर कुष्ट रोगी के परिवार के सदस्यों ने भी गुरुदेव का आभार व्यक्त करते
हुए जल-पान की सेवा आरम्भ कर दी। अब कुष्ट रोगी का मन गुरुदेव की बताई विधि अनुसार
प्रभु चरणों में लीन रहने लगा। देखते ही देखते कुष्ट रोगी, रोग मुक्त हो गया।
गुरुदेव अब आगे प्रस्थान करने लगे तो उससे कहा: लोग आप से प्रश्न करेंगे कि आप किस
प्रकार रोग मुक्त हुए हैं तो आप उत्तर में कह देना कि मुझे यहाँ के स्थानीय फ़कीर
शाह सुहागिन ने ठीक किया है। इस पर उस कुष्ट रोगी ने पूछा: गुरुदेव जी, ऐसा क्यों ?
उत्तर में गुरुदेव ने कहा: मैं नहीं चाहता कि मेरे कारण किसी की निन्दा हो या उसकी
जीविका का साधन छिन जाए। गुरुदेव वहाँ से प्रस्थान कर गये तब दीपालपुर के लोगों ने
कुष्ट रोगी को स्वस्थ देखा और वे आश्चर्यचकित होने लगे कि यह कुष्ट रोगी असाध्य रोग
से कैसे मुक्ति पा गया। पूछने पर वह कुष्ट रोगी सभी को बताता कि शाह सुहागिन ने उसे
ठीक किया है। प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता तो थी नहीं। अतः लोग पुनः शाह
सुहागिन की स्तुति करने लगे तथा उसकी फिर से मान्यता होने लगी। किन्तु शाह सुहागिन
यह जानता था कि उसने कुष्ट रोगी को तो देखा तक नहीं। अतः वह एक दिन कुष्ट रोगी को
मिलने दीपालपुर आया। और उसने उस से पूछा: सच-सच बताओ तुम्हें किसने ठीक किया है ?
तब भी कुष्ट रोगी ने बताया कि उसे शाह सुहागिन ने रोग मुक्त किया है। यह सुनकर शाह
सुहागिन फ़कीर ने कहा: शाह सुहागिन तो मैं हूँ, किन्तु मैंने तो तुझे ठीक नहीं किया,
फिर तुम्हारे झूठ के पीछे क्या रहस्य है ? उसी कुष्टी ने तब कहा: वास्तव में मुझे
श्री गुरू नानक देव जी ने ठीक किया है, परन्तु मुझे उनका आदेश है कि मैं आपका नाम
बताऊँ। ऐसा इसलिए कि वह चाहते थे कि आपकी पहले की तरह प्रतिष्ठा पुनः बन जाए। यह
रहस्य जानकर शाह सुहागिन के मन में गुरुदेव के प्रति रोष जाता रहा, और वह गुरुदेव
की उदारता से बहुत प्रभावित हुआ। अतः वह स्वयँ गुरुदेव को खोजने निकल पड़ा। लम्बी
यात्रा के पश्चात् पाकपटन नामक स्थान के निकट उसकी पुनः गुरुदेव से भेंट हुई। उसने
अपने पाखण्ड के लिए गुरुदेव से क्षमा याचना की।
उसके पश्चाताप को देखकर गुरुदेव प्रसन्न गए, तथा वास्तविक भक्त
बनने की प्रेरणा देकर नाम-दान दिया और अपना अनुयायी मानकर भजन की युक्ति बताई कि इस
चँचल मन पर किस प्रकार विजय पाई जाती है।