18. डण्डी संन्यासी मण्डली (गिरनार
पर्वत, गुजरात)
श्री गुरू नानक देव जी गिरनार पर्वत पर पहुँचे। वहाँ पर बहुत से
सम्प्रदायों के अखाड़े थे। पर्वत की चोटी पर तीन मुख्य जल स्त्रोत हैं, इनमें से एक
का आकार कमण्डल के समान है, इसलिए इसे कमण्डल कुण्ड कहते हैं। उन दिनों वहाँ दण्डी
सन्यासी लोग रहते थे। गुरुदेव ने उस पर्वत की चोटी पर एक रमणीक स्थल पर अपना डेरा
डाल दिया तथा अपनी मण्डली के साथ कीर्तन करने लगे। कीर्तन के आकर्षण से लोग आपके
पास इकट्ठे होने लगे। गुरुदेव ने शब्द प्रारम्भ किया:
काइआ महलु मंदरु घरु हरि का तिसु महि राखी जोति अपार ।।
नानक गुरमखि महलि बुलाईऐ हरि मेले मेलणहार ।।
राग मलार, अंग 1256
अर्थ: इस "काया" यानि शरीर में ही "परमात्मा" का निवास स्थान
है, इसमें ही परमात्मा ने जोत रखी है। परमात्मा के दर पर तभी जा सकते हैं, जबकि हम
गुरू अनुसार चलकर परमात्मा का नाम जपेंगे, क्योंकि गुरू ही परमात्मा से मिलन करवा
सकता है। शब्द-बाणी से प्रभावित हुए बिना कोई नहीं रह पाया। जिज्ञासु लोगों ने
गुरुदेव से प्रश्न पूछा: हे गुरुदेव ! किस मार्ग पर चलें जिससे जीवन सफल हो सके ?
उत्तर में गुरु जी ने कहा: गृहस्थ मार्ग ही सबसे सर्वोत्तम है। इसमें रहकर, माया को
दासी बनाकर, प्रभु की निकटता प्राप्त की जा सकती है। परन्तु इस उत्तर से दण्डी
सँन्यासियों को धक्का सा लगा। गुरदेव जी का उन के साथ मतभेद हो गया। वे सभी अपना
पक्ष जनता के समक्ष रखने के लिए गुरुदेव के साथ विचार गोष्ठी करने लगे– सँन्यासी
लोग कहने लगे: कि यह किस प्रकार से सम्भव है कि त्यागी से गृहस्थी जल्दी और सहज
प्राप्ति कर सकता है ? उत्तर में गुरुदेव ने कहा: व्यक्ति को अपने "मन से त्याग"
करना चाहिए। शरीर का त्याग कोई महत्व नहीं रखता, यह त्याग आध्यात्मिक दुनिया में
गौण है। यदि सँन्यास लेकर भी मन माया में ही रमा रहा तो उस सँन्यास का क्या लाभ ?
अर्थात, मन की इच्छाओं पर नियन्त्रण करना ही वास्तविक सँन्यास है। यह सब कुछ तो
गृहस्थ आश्रम में रहकर सभी प्रकार के कर्त्तव्य निभाते हुए किया जा सकता है, जबकि
सँन्यासी का मन माया के अनेक रूपों में से किसी एक के पीछे जरूर भटकता रहता है।
सँन्यासी कहने लगे: कि गृहस्थ में यह कैसे सम्भव है कि व्यक्ति, मन से माया का
त्यागी हो जाए ? वहाँ तो जीवन के हर क्षेत्र में माया की आवश्यकता रहती है। घर की
स्त्री भी तो माया का ही एक स्वरूप है। उत्तर में गुरुदेव ने कहा: गृहस्थ में रहते
हुए, अपना "प्रत्येक कर्तव्य" पूर्णतः निभाते हुए मन से, माया से उदासी का जीवन जिया
जा सकता है। जैसे कमल का फूल पानी में से उत्पन्न होने पर भी सदैव पानी की सतह से
उपर रहता है तथा मुर्गाबी तालाबों अथवा झीलों के पानी में रहती हुई भी नहीं भीगती
उसके पँख भी सदैव सूखे ही रहते हैं।
जैसे जल महि कमलु निरालमु मुरगाई नैसाणे ।
सुरति सबदि भव सागरु तरीऐ नानक नामु बखाणे ।।
राग रामकली, अंग 938
उत्तर सुनकर सभी सन्तुष्ट हो गए।