16. मूर्तियों का विसर्जन (पोरबन्दर
सुदामा नगरी, गुजरात)
श्री गुरू नानक देव जी गुरुमत सिद्धाँतों का प्रचार करते हुए आगे
बढ़ते हुए सुदामा नगरी पोरबन्दर पहुँचे। उन दिनों दिवाली के पश्चात् प्रयोग हो चुकी
मूर्तियों का नदियों में विसर्जन करना था। अतः लोगों की भारी भीड़ इकट्ठी होकर, सिर
पर मूर्तियाँ उठाकर ब्राहम्ण परम्परागत विधि अनुसार मन्त्र पढ़ने में जुट गए।
गुरुदेव ने तब कीर्तन प्रारम्भ कर दिया जो कि पहले से विराजमान थे:
नव छिअ खट का करे बीचार ।।
निसि दिन उचरै भार अठार ।।
तिनि भी अंतु न पाइआ तोहि ।।
नाम बिहूण मुकति किउ होइ ।। राग सारंग, अंग 1237
जनसाधारण, मूर्तियाँ विसर्जन करना भूलकर गुरुदेव की संगत में आ
पधारे। जब ब्राह्मणों ने देखा कि वे अकेले ही मन्त्र उच्चारण में जुटे हैं, जनता तो
कहीं और जा बैठी है तो उनको चिन्ता हुई। वे भी धीरे-धीरे शब्द के मधुर संगीत के
आकर्षण से खिचे चले गए। किन्तु अपने कर्मों के विपरीत बाणी सुनकर चकित हुए। क्रोध
और आश्चर्य की मिली जुली प्रतिक्रिया करते हुए, प्रश्न करने लगे कि आप शास्त्रों के
विधि विधान का खण्डन कर रहे हैं। इस पर गुरुदेव ने उन्हें धैर्य रखने का आग्रह करते
हुए अपने प्रवचनों में कहा कि यह तिथि वार आदि सब मनुष्य के अपने बनाये हुए हैं।
परन्तु प्रकृति का अपना ही नियम है। उसमें सभी दिन एक समान हैं कोई तुच्छ या कोई
महान नहीं। अतः न ही कोई दिन अच्छा है और न कोई दिन बुरा है। प्राणी का जन्म-मरण कभी
भी हो सकता है। इस कार्य के लिए जब प्राकृतिक नियमों में हस्तक्षेप नहीं कर सकते तो
साधारण कार्यों के लिए क्यों भ्रम में पड़कर अपना समय नष्ट करते हो। वास्तव में प्रभु
की लीला में खुशी का अनुभव करते हुए हमें नाम जपते हुए अपने हृदय की मैल धोनी चाहिए।
इसी में सभी का कल्याण है।