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15. कृतिम चिन्हों का खण्डन (द्वारका, गुजरात)

श्री गुरू नानक देव जी, मंडी, सामका, मुन्देर तथा अँजार नगर में प्रचार करते हुए माँडवी नगर के आशा पूर्णी देवी मन्दिर की पुजारिन को अपना अनुयायी बनाकर, शिक्षा का प्रसार करने के लिए एक नाव द्वारा कच्छ की खाडी पार करके द्वारिका-धाम पहुँचे। यह स्थान श्री कृष्ण जी की राजधानी के रूप में प्रसिद्ध है। गुरुदेव ने भाई मरदाना जी को बताया कि यह सोरठ देश है यानि, सौराष्ट्र। यहाँ संगीतज्ञों का एक विशेष घराना रहता है जो राग सोरठ की विशेष धुन में गायन करते हैं। यहाँ की किवदँतियों के अनुसार बीजा तथा सोरठ प्रेमियों की प्रेम गाथा जो भट्ट कवि वारों में गाते हैं, उसी धुन को सोरठ राग कहते हैं। भाई मरदाना जी ने इसी राग में बाणी सुनने की इच्छा व्यक्त की गुरुदेव बाणी उच्चारण करने लगे:

सोरठि सदा सुहावणी जे सचा मनि होइ ।।
दंदी मैलु न कतु मनि जीभै सचा सोइ ।।
ससुरै पैइऐ भै वसी सतिगुरु सेवि निसंग ।।
परहरि कपड़ु जे पिर मिलै खुसी रावै पिरु संगि ।। राग सोरठि, अंग 642

अर्थ: राग सोरठ सदा सुन्दर लगे, अगर इसके द्वारा प्रभु के गुण गाते हुए, सदा स्थिर रहने वाला प्रभु मन में बस जाए। निन्दा करने की आदत न रहे, मन में किसी से वैर विरोध न हो और जीभ पर वो सच्चा मालिक हो। इस प्रकार एक जीव स्त्री लोक परलोक में परमात्मा के डर में जीवन गुजारती है और गुरू की सेवा करने से उसे कोई भी सहम दबा नहीं सकता। कीर्तन श्रवण करने के लिए अनेक श्रोतागण एकत्रित हो गए। जिनमें से कुछ एक के गले में श्री कृष्ण की मूर्तियाँ लटक रही थी तथा कुछ एक के बदन पर गदा, शँख, त्रिशूल, चक्र इत्यादि के चिन्ह, धातु को गर्म करके दाग कर बनवाए हुए थे। जैसे कि घोडों इत्यादि जीवों को दागा जाता है। उन लोगों का विश्वास था कि वह चिन्ह शरीर पर बनवाने मात्र से व्यक्ति ईश्वर का भक्त बन जाता है तथा उन पर प्रभु की कृपा होती है। इस अँध्विश्वास को देखकर गुरुदेव ने कहा कि इन चिन्हों से परमात्मा प्रसन्न नहीं होता, वह तो मनुष्य के पवित्र हृदय को देखता है। पत्थर की मूर्तियाँ गले में लटकाने मात्र से कोई भक्त नहीं बन जाता। इन बातों का आध्यात्मिक जीवन से दूर का भी रिश्ता नहीं, यह तो केवल जगदिखावा तथा पाखण्ड है। यदि हम मूर्ति गले में न लटकाकर हृदय में प्रभु-विरह का दर्द रखें तो भी वह व्यक्ति को लक्ष्य के निकट ला खड़ा कर देगा। इस प्रकार शरीर पर धार्मिक चिन्ह उकरवाने के स्थान पर हृदय से यदि प्रबल बन सके तो उसके आध्यात्मिक जीवन के सफल होने की सम्भावना उज्ज्वल हो जाएगी। यह सुनकर सभी को अपनी गल्तियों का अहसास हुआ और सभी इस उपदेश से अत्यँत प्रभावित हुए।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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