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14. आशा पूर्णनी देवी (माँडवी नगर, गुजरात)

श्री गुरू नानक देव जी अपने साथियों सहित भुज नगर से माँडवी पधारे। वहाँ एक काली देवी का प्रसिद्ध मन्दिर था। जिसे स्थानीय निवासी आशा पूर्णी देवी कहकर पुकारते थे। उस मन्दिर की पुजारिन ने गुरुदेव के विषय में यात्रियों से बहुत कुछ सुन रखा था। जो लोग लखपत नगर से वहाँ लौटते, गुरुदेव की स्तुति में वे कहते कि गुरू नानक जी कलाधारी पूर्ण पुरुष हैं। अतः उनके तेज प्रताप के आगे सभी को झुकना ही पड़ता है, कयोंकि वह तर्कसँगत जीवन जीने की युक्ति बताते हैं तथा अनावश्यक कर्मकाण्डों, पाखण्डों से दूर रहने की प्रेरणा देते हैं। यह सब जानकर उस पुजारिन को अपनी जीविका की चिन्ता हुई कि यदि गुरुदेव यहाँ पधारें तो उनके उपदेशों के आगे मेरा तान्त्रिक पाखण्ड टिकने वाला नहीं। अतः इससे पहले कि वह मुझे पराजित करें तथा मेरे ढ़ोंग का भाँडा फोड़ें, मैं ही उनसे प्रार्थना करके अपनी सुरक्षा माँग लूँ। यह विचार करके वह उचित समय देखकर गुरुदेव जी के पास पहुँची। तब भाई मरदाना जी कीर्तन कर रहे थे तथा गुरू जी समाधि में लीन थे। वह पुजारिन भी कीर्तन की मधुरता से प्रभावित हुई और उसकी सुरति भी शब्द में एकाग्र हो गई। अतः आनँद विभोर होकर सुन्न अवस्था में स्थिर हो गई। गुरुदेव, शब्द उच्चारण कर रहे थे:

बिनु गुर सबद न छूटसि कोइ ।।
पाखंडि कीनै मुक्ति न होइ ।। राग बिलावलु, अंग 839

शब्द की व्याख्या करते हुए गुरू जी ने अपने प्रवचनों में संगत को सम्बोधन करते हुए कहा, पाखण्डी मनुष्य आवागमन के चक्र में बँधा रहता है तथा कर्म फल उसे भोगने ही होते हैं। जब कि सतगुरु की शिक्षा पर निःस्वार्थ और परोपकारी जीवन जीने वाला प्रभु चरणों में अपना स्थान बना लेता है। यह सुनकर काली मन्दिर की पुजारिन गुरुचरणों में नतमस्तक हो गई तथा विनती करने लगी, जैसा सुना था वैसा ही पाया है। किन्तु मेरी जीविका का साधन यही पाखण्ड है, मैं इसे त्याग दूँ तो मेरी जीवन क्रिया ही समाप्त हो जाएगी। हे गुरुदेव, मुझे इस दुविधा से मुक्ति दिलवाएँ तथा मेरा मार्ग दर्शन करें। गुरुदेव ने उसे साँत्वना देते हुए कहा, जो मनुष्य सत्य के मार्ग पर चलने का प्रयत्न प्रारम्भ कर देता है, प्रभु उसका साथ देते हैं। जीविका के समाप्त होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। वास्तव में तुम्हारी शँका निराधार है। तुम सत्य के मार्ग को अपनाकर तो देखो, कुछ एक कठिनाइयाँ अवश्य आएँगी परन्तु जल्दी ही सब सामान्य हो जाएगा। यदि तुम उस सर्वशक्तिमान प्रभु पर अपना दृढ़ विश्वास बना लो तो वह अवश्य तुम्हारी सहायता करेंगे और अन्त में तुम विजयी होकर पाखण्डों के आडम्बर से छुटकारा प्राप्त करके एक ईश्वर के प्रचार-प्रसार में अपना योगदान डालने लग जाओगी और इन काल्पनिक देवी-देवताओं से छुटकारा प्राप्त करके बैकुण्ठ-धाम को प्राप्त कर सकोगी। इस आश्वासन को प्राप्त करके पुजारिन ने पूछा, हे गुरुदेव मुझे अब क्या करना चाहिए ? गुरुदेव ने तब कहा, एक धर्मशाला बनवाकर उसमें ईश्वर के एक, और उसके सर्वशक्तिमान होने का प्रचार करो, कि वहीं कण-कण में समाया, रोम-रोम में रमा राम है। इसके अतिरिक्त सभी कर्मकाण्ड मनुष्य को भटकने पर विवश कर देते हैं। पुजारिन ने इस कार्य के लिए गुरुदेव से आशीर्वाद माँगा। गुरुदेव ने कहा कि जिस प्रभु का कार्य करोगी वह शक्ति प्रदान करेंगे और तुम्हें अपने हर उद्देश्य में सफलता प्राप्त होगी। क्योंकि प्रभु को प्रसन्न करने की कुंजी है ‘आप जपो अवरा नाम जपावो’।। यानि स्वयँ भी परमात्मा का नाम जपो और दुसरे लोगों से भी जपवाओ। पुजारिन कहने लगी, हे गुरुदेव ! मैं जब आपके पास आ रही थी तो उस समय मेरा प्रयोजन था कि मैं आपसे विनती करके अपना क्षेत्र सुरक्षित करवा लूँ ताकि आप मेरे कार्य में हस्तक्षेप न करें। क्योंकि आपके पास समस्त विश्व का विशाल भू-भाग है तथा आपने सभी पर विजय पाई है। अतः आपका कार्य क्षेत्र बहुत विस्तृत है। कृपया मुझे क्षमा करें और मुझे मेरे हाल पर छोड़ दें, किन्तु मैं बहुत बड़ी भूल में थी क्योंकि धन और नाम कमाकर अपनी मान्यताएँ बढ़ानी केवल अभिमान को बढ़ावा देने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं। वास्तविक आनँद तो त्याग तथा प्रभु चिन्तन में है जो कि मैंने आपसे प्राप्त किया है। गुरुदेव ने उसे समझाया कि किसी भी फल की प्राप्ति उसके अच्छे साधनों से होती है, यदि साधन गलत जुटाऐंगे तो प्राप्तियाँ भी अच्छी नहीं हो सकती। भले ही लक्ष्य उत्तम हो, ताँत्रिक विद्या केवल मनोविकार को बढ़ावा देती है। जिससे मनुष्य पथ-भ्रष्ट हो जाता है तथा अँधे कूएँ में गिरता ही चला जाता है। वास्तविक सुख तो मन की चँचल प्रवृतियों पर नियन्त्रण करके निष्कर्म होकर एक ईश्वर के ध्यान में मग्न होने में है।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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