10. जैनी साधु (आबू पर्वत, राजस्थान)
श्री गुरू नानक देव जी उदयपुर से प्रस्थान करके आबू नगर पहुँचे।
वहाँ जैन पर साधुओं के प्रसिद्ध मन्दिर हैं। गुरुदेव की जब जैन साधुओं से भेंट हुई
तो उनके असामाजिक जीवन से गुरुदेव खिन्न हुए, क्योंकि जैन अहिंसा परमोधर्म के चक्र
में पड़कर, पानी का प्रयोग भी नहीं के बराबर करते थे। उनका विश्वास था कि स्नान करने
से पानी में जीवाणु मर जाते हैं, इससे जीव हत्या हो जाती है। इस भ्रम के कारण वे
साधु मलीन रहते थे, जिसके कारण उनके पास से दुर्गंध आती थी। इसके अलावा वे साधु अपनी
विष्ठा (मल) भी तिनके से फैला देते थे कि कहीं कोई जीव विष्ठा में उत्पन्न होने पर
मर न जाए तथा सिर के बाल भी एक-एक करके नोचकर उखाड़ते रहते थे कि कहीं कोई जीव पसीने
से न उत्पन्न हो जाए। जब भी कहीं आते–जाते तो पाँव में जूता नहीं पहनते ताकि कोई
जीव पाँव के नीचे दबकर मर न जाए। इस प्रकार के असामाजिक, अँध्विश्वासी, भ्रम पूर्ण
तथा अवैज्ञानिक दृष्टिकोण वाला जीवन देखकर गुरुदेव ने उन लोगों को बहुत फटकारा तथा
कहा तुम्हारा मानव होना भी समाज के लिए एक कलँक है। वहाँ पर जैन साधुओं के कई
सम्प्रदाय थे। उन लोगों के अपने अलग-अलग विश्वास तथा मान्यताएँ थी, जिस कारण उन सभी
का जीवन एक सा न था। कई तो वस्त्र भी नहीं पहनते थे, कई अनाज का सेवन नहीं करते थे,
कई मौन व्रत रखते थे तथा कई जूठन खाकर उदर पूर्ति को पुण्य कार्य समझते थे। उन सबको
देखकर गुरुदेव ने अपनी वाणी में उनके प्रति शब्द उच्चारण किया:
बहु भेख कीआ ।। देही दुखु दीआ ।। सहु वे जीआ, अपणा कीआ ।।
अंनु न खाइआ, सादु गवाइआ ।। बहु दुखु पाइआ दूजा भाइआ ।।
बसत्र न पहिरै ।। अहिनिसि कहरै ।। मोनि विगूता ।। किउ जागै गुर ।।
बिनु सूता ।। पग उपेताणा ।। अपणा कीआ कमाणा ।।
अलुमलु खाई सिरि छाई पाई ।। मूरखि अंधै पति गवाई ।। राग आसा, अंग 467
गुरुदेव ने उन साधुओं के साथ अपनी विचार गोष्ठियों में कहा– तुम
लोग बहुत भेष धारण करके पाखण्ड करते हो जिसका कि धर्म से दूर का सम्बन्ध भी नहीं।
तुम्हारे ये कार्य केवल अपने शरीर को बिना कारण कष्ट देने के सिवाए और कुछ भी नहीं।
आध्यात्मिक प्राप्ति शून्य के बराबर भी नहीं। उन क्रियाओं से दुख भोगने के अतिरिक्त
कुछ भी हाथ नहीं लगता। जो अनाज का त्याग करते हैं वे केवल स्वाद ही खोते है। जो
वस्त्र धारण नहीं करते, वे बिना कारण गर्मी-सर्दी में कष्ट भोगते हैं। जो मौन रहते
है अर्थात् किसी से बात-चीत नहीं करते वे गुरू विहीन जीवन जीते हैं। जो पाँव में
जूते नहीं पहनते, वे बिना कारण पाँव में गड़ने वाले कँकर पत्थर, काँटों से कष्ट भोगते
हैं। जो दूसरों का जूठन खाते हैं वे समाज की दृष्टि से गिर जाते हैं और अपना
स्वाभिमान खो देते हैं।