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9. अवतारवाद का खण्डन (कोटद्वार, उत्तर प्रदेश)

राजा विजय प्रकाश के अनुरोध पर आप उसकी राजधनी श्री नगर गढ़वाल पधारे। परन्तु इसी बीच मेला समाप्त होने पर वहाँ से प्रस्थान करके कोटद्वार पहुँचे। वहाँ पर लोग बारह अवतारों की विभिन्न-विभिन्न मूर्तियाँ स्थापित कर उनकी अलग-अलग मान्यताओं से पूजा अर्चना करने में व्यस्त थे। इस कारण जन-साधारण में एकता के स्थान पर अनेकता हो गई थी। सभी एक दूसरे को तुच्छ तथा स्वयँ को वास्तविक भक्त मानकर अपने इष्ट को ही सर्वोतम देवता या अवतार समझते थे। अतः जनता की आपसी दूरी बढ़ती जा रही थी। यह सब त्रुटियाँ देखकर गुरुदेव ने समस्त पुजारियों को कहा– परम ज्योति तो एक ही है फिर कोई तुच्छ तो कोई बड़ा कैसे सम्भव है ?

साहिबु मेरा एको है ।। एको है भाई एको है ।। राग आसा, पृष्ठ 350

अवतारवाद व्यक्ति को दुविधा में डालकर वास्तविक लक्ष्य की प्राप्ति में बाधक बनता है क्योंकि जिसका जन्म हुआ है उसका मरण भी निश्चित है परन्तु जन्म मरण से ऊपर प्रभु आप है इसलिए उसे अकाल पुरुष कहते है, अर्थात जो काल के चक्र में नहीं आता। जब तक उस कालरहित शक्ति की हम अराधना नहीं करते तब तक हमें मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती, क्योंकि हमारा इष्ट (यानि समस्त देवी-देवता और अवतारी पुरूष) स्वयँ आवागमन के चक्र में बँधा हुआ होता है।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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