57. बहन नानकी जी से पुर्नमिलन (सुलतानपुर,
पँजाब)
श्री गुरू नानक देव जी सरसा से सुनाम और सँगरूर होते हुए अपनी
बहन नानकी जी के यहाँ सुलतानपुर पहुँचे। बहन नानकी उस समय अपने भाई की मीठी याद में
बैठी, अपने आप से ही कुछ बात कर रही थी कि बहुत लम्बा समय हो गया है न जाने भइया जी
कब वापस लोटेंगे। उनके तो दर्शनों को भी तरस गई हूँ। अतः वह रोटियाँ सेंकने लगी, कि
एक के बाद एक रोटियाँ फूलने लगी। तभी उनके मन में विचार उत्पन्न हुआ कि काश उनका
भाई आ जाए तो मैं उसे गर्मा-गर्म रोटियाँ बना बनाकर पहले की तरह खिलाऊँ। इतने में
उन की नौकरानी तुलसां भागी-भागी आई तथा कहने लगी बीबी जी आप के प्यारे भइया नानक जी
आए हैं। उन्होंने कहा, कहीं तू मुझसे ठठोली तो नहीं कर रही हो। इतने में नानक जी
सतकरतार-सतकरतार की ध्वनि करते द्वार पर आ पधारे। तब नानकी जी भागी-भागी आई और
गुरुदेव का भव्य स्वागत करते हुए अन्दर ले आई। तुलसा ने चारपाई बिछा दी। भाई मरदाना
तथा गुरुदेव उस पर विराज गए। उस समय गुरुदेव के बड़े पुत्र, श्रीचन्द जी घर पर आए।
जो कि अपनी फूफी के पास ही रहते थे, अब उनकी आयु लगभग 16 वर्ष होने को थी। बहन नानकी
जी ने उन्हें परिचय देते हुए कहा, बेटा यह आपके पिता नानक देव जी, मेरे छोटे भाई
हैं। यह जानते ही श्रीचन्द जी ने तुरन्त ही पिता जी के चरण र्स्पश किये। गुरुदेव ने
उन्हें कण्ठ से लगा लिया तथा माथा चूम लिया। इस प्रकार पिता-पुत्र का पुर्न मिलन
लगभग 12 वर्ष के अन्तराल में हुआ। यह मिलन देखकर नानकी जी कहने लगी- श्रीचन्द भी
बिलकुल तुम्हारी आदतों का स्वामी है। यह भी तुम्हारी तरह साधू सँन्यासियों की संगत
में रहना पसँद करता है, तथा घर गृहस्थी के किसी काम में कोई रुचि नहीं रखता। मैंने
भी इस पर अपनी इच्छा कभी नहीं थोपी। कुछ ही देर में भाई जयराम जी भी अपना काम काज
निपटाकर घर लौटे, तो नानक जी से मिलकर गद-गद हो गए। श्री गुरू नानक देव जी वापस लौट
आए हैं। यह समाचार समस्त नगर में फैल गया फिर क्या था नवाब दौलत खान गुरुदेव से
मिलने स्वयँ आया और उसने झुक कर चरण स्पर्श किये, किन्तु गुरुदेव ने उन्हे बहुत आदर
मान दिया। नवाब कहने लगा, दुख इस बात का है कि मैंने आप की महिमा को पहले क्यों नहीं
जाना तथा आग्रह करने लगा कि मुझे अपना शिष्य बनाए। गुरुदेव ने उस की प्रार्थना
स्वीकार कर ली और गुरू दीक्षा देकर नवाब को नाम-दान देकर कृतार्थ किया। इस प्रकार
सभी मित्र तथा सतसँगी गुरुदेव को मिलने आए और कहने लगे कि आप द्वारा तैयार कराई गई
धर्मशाला में हम सतसँग का प्रवाह जारी रखे हुए हैं। अतः आप उस स्थान की शोभा बढ़ाएँ।
फिर क्या था, गुरुदेव ने लगभग 12 वर्षों बाद धर्मशाला में पहुँचकर भाई मरदाना जी
सहित सवयँ कीर्तन किया। तत्पश्चात् अपने प्रवचनो में गुरू जी ने कहा कि सब को धैर्य
रखना चाहिए तथा अपना कर्त्तव्य पालन करते हुए, नाम-बाणी का इसी प्रकार प्रवाह चलाते
रहना चाहिए, क्योंकि मैं आपके अनुरोध पर यहाँ नहीं ठहर सकता। मुझे तो अभी बहुत से
देश-देशाँतरों में जाना है। मेरा कार्य अभी अधूरा पड़ा हुआ है। कुछ दिन बहिन नानकी
जी के यहाँ रुककर गुरुदेव अपने माता पिता जी से मिलने तलवण्डी नगर को चले गये।