54. सूर्यग्रहण (कुरूक्षेत्र, हरियाणा)
श्री गुरू नानक देव जी लोक-उध्दार करते हुए सूर्यग्रहण के अवसर पर कुरूक्षेत्र में
पहुँच गए। वहाँ पर पहले से ही अपार जन समूह पवित्र स्थान के लिए उमड़ पड़ा था। अतः
गुरुदेव ने सरोवर के किनारे कुछ दूरी पर अपना आसन लगाया तथा भाई मरदाना को साथ लेकर
कीर्तन में जुट गए। मधुर संगीत में प्रभु स्तुति सुनकर चारो ओर से तीर्थ यात्री,
कीर्तन सुनने के लिए गुरुदेव की तरफ आकर्षित होने लगे।
बिनु सतिगुर किनै न पाइओ बिनु सतिगुर किनै न पाइआ ।।
सतिगुर विचि आपु रखिओनु करि परगटु आखि सुणाइआ ।।
राग आसा, अंग 466
यात्रियों ने हरियश सुना और गुरुदेव से अपनी-अपनी शँकाओं के
समाधान हेतु विचारविमर्श करने लगे कि मनुष्य को अपने कल्याण के लिए कौन सा उपाए करना
चाहिए जो कि सहज तथा सरल हो ? इसके उत्तर में गुरुदेव ने सब को सम्बोधित करके कहा
कि मानव को सर्वप्रथम किसी पूर्ण पुरुष के उपदेशों पर अपना जीवन व्यापन करना चाहिए।
क्योंकि वहीं उसे साधारण मानव से देवता अर्थात ऊँचे आचरण का बना देता है। जिस
प्रकार एक बढ़ई एक साधारण लकड़ी को इमारती सामाग्री में बदल देता है या एक शिल्पकार
एक साधारण पत्थर को मूर्ति में, तथा एक स्वर्णकार सोने की डली को एक सुन्दर आभूषण
में बदल देता है। उसी तरह सतगुरू भी मनुष्य के जीवन को नियमबद्ध करके उसे ऊँची
आत्मिक अवस्था का बना देता है। उसी समय, गुरुदेव के प्रवचन सुनने वहाँ पर एक राज
कुमार अपने परिवार सहित पहुँचा और गुरुदेव के चरणर्स्पश करके संगत में यथा स्थान पर
बैठ गया। उसने विनम्रतापूर्वक विनती की: आप मेरा भी मार्गदर्शन करें। गुरुदेव ने कहा:
आप अपनी समस्या बताएँ ? राजकुमार बताने लगा: हे गुरुदेव जी, मेरा नाम जगतराय है।
मैं हाँसी रियासत के राजा अमृतराय का बेटा हूँ। इन दिनों हम पराजित हो गए हैं। हमारा
राज्य हमारे चचेरे भाईयों ने छीन लिया है। कृप्या कोई युक्ति बताएँ जिससे मुझे मेरा
राज्य पुनः प्राप्त हो सके। गुरुदेव ने उत्तर दिया: बेटा अपनी प्रजा का मन जीतना ही
सबसे बड़ी युक्ति है। यह तभी सम्भव हो सकता है जब तुम एक आदर्शवादी व्यक्ति बनकर
प्रजा के सेवक के रूप में उभरो, सुख दुख में उनके साथ, हाथ बटाने के लिए तत्पर रहो
आप अपने ऊँचे आचरण का परिचय दें जिससे जनसाधारण का तुम पर विश्वास बन जाए कि आप उनके
साथ सदैव न्याय पूर्ण व्यवाहर करेंगे और किसी निर्दोष का दमन नहीं होने देंगे। आप
पुनः विजयी हो सकते हो अन्यथा नहीं। यह सीख धारण करते हुए राजकुमार ने आवासन दिया:
हे गुरुदेव जी, आपकी जैसी आज्ञा है मैं वैसे ही आचरण करूगाँ। किन्तु आप मुझे कृप्या
इस समय आशीर्वाद दें। गुरुदेव ने कहा: कि यदि तुम शपथ लेते हो कि तुम सदैव न्यायकारी
तथा प्रजा का सेवक होकर राज्य करोगे तो हम समस्त संगत के साथ तुम्हारी विजय के लिए
प्रभु चरणों में प्रार्थना करते हैं। राज कुमार ने तब गुरुदेव से कहा: कि मैं आपको
कुछ भेंट देना चाहता हुं, आप स्वीकार करें। उत्तर में गुरुदेव कहने लगे: बेटा, हम "त्यागी"
हैं इसलिए तुम्हारी भेंट स्वीकार नहीं कर सकते। यदि तुम सेवा ही करना चाहते हो तो
जनसाधारण के लिए यहाँ लँगर का प्रबन्ध कर दो। इस पर राजकुमार ने कहा: जो आज्ञा
गुरुदेव, मैं अभी अनाज का प्रबन्ध करता हूँ तथा उस ने बाजार से एक बोरी चावलों की
मँगवा भेजी। जिसको गुरू जी ने एक विशाल देग में पकाने के लिए, एक चूल्हे पर धर दिया।
जैसे ही आग जलाई गई। धुँआ दूर-दूर तक दिखाई देने लगा। उस समय सूर्यग्रहण प्रारम्भ
हो चुका था। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार सूर्य अथवा चन्द्रग्रहण के समय आग जलाना
अथवा खाना पकाना वर्जित है क्योंकि उनका मानना है कि उस समय ग्रहण के प्रभाव से
भोजन अपवित्र हो जाता है। अतः आग जलाना अपशगुन माना जाता है। जैसे ही आग अथवा धुआँ
दिखाई दिया तो वहाँ के पुजारी लोग आपत्ति करने हेतु इकट्ठे होकर आ पहुँचे। उनके
प्रमुख पण्डित नानूमल जी थे और वह स्वयँ को कलयुग का अवतार मानते थे। वास्तव में वह
प्रसिद्ध विद्वान तथा शास्त्रार्थ में निपुण थे। उनका नाम सँयोगवश ही नानूमल था,
उन्होंने भविष्य पुराण के एक अध्याय में यह पढ़ लिया था कि आगामी समय में एक पराक्रमी
तथा तपस्वी महामानव विश्व भ्रमण, मानव कल्याण हेतु करेगें जिसका नाम नानक होगा। बस
फिर क्या था। उन्होंने स्वयँ को वही पुरुष घोषित कर दिया उधर विडंबना यह थी कि
वास्तविक नानक जी भी वहाँ पर पहुँच गये थे। जैसे ही गुरू नानक देव जी के पास वह
प्रतिनिधिमण्डल विरोध करने पहुँचा तो किसी चुगलखोर ने पण्डित नानू से कहा कि यह लोग
तो हिरण का मांस पक्का रहे हैं। इस बार सभी पण्डित क्रोधित होकर लड़ाई-झगड़ों पर उतर
आये किन्तु गुरुदेव ने शान्त चित होकर उनको विचारविमर्श का आग्रह किया। नानू मल
पण्डित ने तब यह चुनौती स्वीकार कर ली।
वह वादविवाद करने लगा: आप लोग कैसे धर्मिक पुरुष हो, जो पवित्र
तीर्थ स्थल पर, सूर्यग्रहण के समय मृग-माँस पक्का रहे है ? गुरुदेव कहने लगे: कि आप
मुझे यह बताने की कृपा करें कि पवित्र तीर्थ स्थल पर भोजन पकाना कैसे गल्त कार्य हो
गया है ? पण्डित नानू ने कहा: हमारा विरोध तो केवल सूर्यग्रहण के समय आग जलाने से
था परन्तु आप ने तो माँस भी पकाया है जिससे पवित्र तीर्थ स्थल की मर्यादा भँग हो गई
है तथा वातावरण भी दूषित हो गया है। नानक जी ने कहा: कि पहली बात तो यह है कि आपका
विरोध निराधर है, क्योंकि सूर्यग्रहण या चन्द्रग्रहण इत्यादि यह सब ग्रहों की गति
से होने वाली सामान्य प्रतिक्रिया भर है। इससे आग जलाने या भोजन तैयार करने से आपको
क्या आपत्ति है ? पण्डित नानू ने कहा: कि हमारी मान्यताओं के अनुसार सूर्यग्रहण के
समय अग्नि जलाना या भोजन तैयार करना वर्जित है, क्योंकि हम मानते हैं कि ग्रहण की
प्रतिक्रिया से भोजन अपवित्र हो जाता है ?नानक जी ने कहा: आपकी मान्यताएँ मिथ्या
हैं, क्योंकि इन सबमें कोई तथ्य तो है नहीं। बाकी रही भोजन की बात तो वह भी अपवित्र
हमारा ही होगा, आपका नहीं। आपको किस लिए आपत्ति है ? नानू पंडित निरूत्तर होकर केवल
एक बात पर ही दबाव डालने लगा: यह स्थान पवित्र है, यहाँ आपको माँस नहीं पकाना चाहिए
था। तब गुरुदेव ने कहा: कि आप बहकावे में आ गए हैं हमने तो जनसाधारण के लिए केवल
लँगर लगाने के लिए चावल ही पकाए हैं। प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती यदि
शँका हो तो स्वयँ देग का ढक्कन उठाकर देख सकते हैं। अब नानू मल पण्डित का यह अभिमान
कि वह शास्त्रार्थ का दक्ष है वह भी टूट गया था। अतः वह गुरुदेव के चरणों में
नतमस्तक होकर, शीश झुकाकर क्षमा याचना करने लगा। इस पर गुरुदेव ने उसे गले लगा लिया।
मासु मासु करि मूरखु झगड़े गिआनु धिआनु नहीं जाणै ।।
कउणु मासु कउणु सागु कहावै किसु महि पाप समाणे ।।
गैंडा मारि होम जग कीए देवतिआ की बाणे ।।
मासु छोडि बैसि नकु पकड़हि राती माणस खाणे ।।
राग मलार, अंग 1289