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5. भाई मरदाना जी को शिक्षा (उपल गाँव पँजाब)

अगले पड़ाव पर मरदाना जी को भूख–प्यास सताने लगी। उन्होंने गुरू जी से निवेदन किया कि मुझे किसी निकटवर्ती गाँव से भोजन करने की आज्ञा दें। तब गुरुदेव कहने लगे भाई मरदाना हम अपने क्षेत्र से अभी अधिक दूर नहीं आए इसलिए सभी लोग हमें जानते हैं। आप पड़ोस के गाँव में जाकर कहें कि मैं नानक का शिष्य हूँ, वह मेरे साथ हैं। हम हरिद्वार जा रहे हैं, अभी हमें भोजन चाहिए। मरदाना जी आज्ञा मानकर गाँव में पहुँचे और लोगों से अनुरोध किया कि उसे भोजन करा दो वह गुरू नानक देव जी का शिष्य है। तब क्या था ! गाँव के सभी लोगों ने नानक जी का नाम सुनकर मरदाना जी का बहुत आदर सत्कार किया तथा बहुत सी बहुमूल्य वस्तुएँ उपहार स्वरूप भेंट में दी। यह सब वस्तुएँ तथा वस्त्र इत्यादि इकट्ठे करके एक भारी बोझ के रूप में उठाकर मरदाना जी गुरुदेव के पास पहुँचे। तथा कहने लगेः कि आपके आदेशानुसार जब मैं एक गाँव में पहुँचा तो आपका नाम सुनकर लोगों ने प्रसन्न होकर मेरा बहुत अथिति-सत्कार किया तथा यह वस्तुएँ आप को भेजी हैं। इस पर गुरुदेव मरदाना जी की अल्प बुद्धि पर हंस दिये तथा कहने लगेः मरदाना जी आप ही बताएँ हम इन वस्तुओं का क्या करेगें। अगर हमें वस्तुओं से ही मोह होता तो हम मोदीखाने के कार्य का त्याग ही क्यों करते ? क्या वहाँ पर हमे वस्तुओं की कमी थी ? मरदाना जीः आप ठीक कहते हैं। मैं अल्पज्ञ हूँ, मुझे क्षमा करें परन्तु अब मैं इन वस्तुओं का क्या करूँ ? नानक जीः यह वस्तुएँ यहीं पर त्याग दो। मरदाना जीः वह तो ठीक है किन्तु यह साहस मुझ में नहीं है कि मैं इन अमूल्य प्यार भरे उपहारों को यहाँ फेंक दूँ। नानक जीः ठीक है जैसी तुम्हारी इच्छा है करो परन्तु हमें तो आगे अपनी मँजिल की ओर बढ़ना है। मरदाना जीः ठीक है मैं इन उपहारों के बोझे को उठाये चलता हूँ। अब मरदाना जी गुरुदेव के पीछे-पीछे चल पड़े। परन्तु शीघ्र ही थक गये, जिस कारण गुरू जी को रूकने के लिए आवाजें देने लगे। तब गुरुदेव ने कहाः भाई मरदाना अभी भी समय है माया का मोह त्यागो, इसे यहीं फेककर सरलता से हमारे साथ चलो। परन्तु मरदाना जी ने बुझे मन से कुछ एक निम्न स्तर की वस्तुएँ वहीं जरूरतमन्दो को बाँट दी, किन्तु कुछ एक वस्तुएँ बचा कर फिर से रख ली।

अब बोझ बहुत कम तथा काफी हल्का हो गया था। इसलिए मरदाना जी अब सरलता से, गुरू जी का साथ देते हुए चलने लगे। किन्तु कुछ दूरी पर जाने के बाद फिर वही दशा, मरदाना जी फिर पीछे छूट गये तथा थक गये। जिसे देख कर गुरुदेव ने मरदाना जी को पुनः कहाः भाई यह बोझ त्यागो यह माया जाल है, जब तक इसे नही त्यागोगे तब तक कठनाईयों का वजन तुम्हारे सिर पर पड़ा रहेगा तथा तुम व्यर्थ में परेशान होते रहोगें। अतः त्याग में ही सुख है। एक बार कहना मान कर तो दखो। मरदाना जी ने तब आज्ञा मान कर समस्त वस्तुएँ जरूरत मन्दों में बांट दी तथा खाली हाथों में केवल रबाव उठाए गुरुदेव के पीछे चल पड़े। अब उन के सामने भारी भरकम बोझ की थकान की समस्या नहीं थी। अतः वह साधारण रूप में तीव्र गति से चले जा रहे थे। इस प्रकार गुरुदेव ने उन्हें समझाते हुए कहाः भाई मरदाना, वास्तव में यह सँसार, इस माया का बोझा ही सिर पर बिना कारण उठाये घूम रहा है, जिससे वह कदम–कदम पर थकान के कारण परेशान है। परन्तु मोह–वश उस का त्याग भी नहीं कर पाता और जीवन के सफर का आनन्द भी नहीं ले पाता। वास्तव में आनन्द तो माया–मोह के जाल को तोड़ कर उस के त्याग में ही है। मरदाना जीः आप ठीक कहते है परन्तु मैं अलपज्ञ हूँ। आप कृपा करे तो मैं सब समझ जाऊँगा। किन्तु यह बताने की कृपा करें कि बिना माया के निर्वाह कैसे सम्भव है ? नानक जीः भाई, आप ने बात को ठीक से समझा ही नहीं है। मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि व्यक्ति अपनी आवश्यकता अनुसार ही माया का उपयोग करे। माया को सँग्रह करना, उस का गुलाम बनना है। जैसे कि आपने बिना आवश्यकता के वस्तुएँ सिर पर उठा ली थी। जबकि आपने आवश्यकता अनुसार नये वस्त्र धारण कर लिए थे उसके अतिरिक्त वहीं पर त्यागकर चले आना चाहिए था। नये वस्त्र धारण करना यह आपकी आवश्यकता थी परन्तु यह बोझा तो केवल लालच था, तृष्णा थी, जो कि आपको दुःखी कर रही थी। मरदाना जीः मैं अब जीवन के रहस्य को आपकी कृपा से समझ रहा हूँ। अतः आप इसी प्रकार समय–समय पर मेरा मार्गदर्शन करते रहें क्योंकि मैं अपने निम्न स्तर के सँस्कारो के बंधन से पग–पग पर डग-मगाता रहता हूँ। अतः आप यह बताएँ कि वास्तव में माया क्या है ?

नानक जीः भाई, वह सभी साँसारिक वस्तुएँ माया हैं जिनको पाने के लिए मन में लालसा उत्पन्न हो। इस माया का बहुत विस्तृत स्वरूप है– पत्नी, बच्चे, मकान, भूमि तथा अन्य बहुमूल्य सामग्री सब माया का ही रूप है। इसका अनेक रूपों में प्रसार है। तात्पर्य यह कि वह सभी कुछ माया है जिसे प्राप्त करने की हम इच्छा करते हैं। यदि हम इसका उपयोग आवश्यकता अनुसार सन्तोषी होकर करे, तो यह मनुष्य की दासी बन कर उस की सेवा करती है, किन्तु हम तो बिना आवश्यकता केवल लोभ, लालच में अँधे होकर इसको इकट्ठा करने के लिए भागते हैं, जिससे हम दुःखी होते है तथा हमारा जीवन कष्टमय हो जाता है। क्योंकि तृष्णा की तो कोई सीमा नही है। यह तृष्णा ठीक उसी प्रकार कार्य करती है जिस प्रकार अग्नि ईधन को जलाती चली जाती है। आग कभी भी ईधन डालने से शान्त नहीं होती, वह तो बढ़ती ही जाती है ठीक इसी प्रकार तृष्णा शान्त नहीं होती वह तो बढ़ती ही जाती है। भले ही आप समस्त मानव समाज की अमूल्य सामग्री इकट्ठी करके भण्डार भर लें।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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