49. माई जसी (आगरा, उत्तर प्रदेश)
नोटः यह माई जसी वाला इतिहास श्री गुरू तेग बहादर साहिब जी से संबंधित है, जो कि
गल्ती से श्री गुरू नानक देव साहिब जी के इतिहास में आ गया है। श्री गुरू तेग बहादर
साहिब जी अपनी प्रचार यात्रा के दौरान आगरा नगर पहुँचे वहाँ एक माता, जिसका नाम जसी
था प्रभु दर्शन की अभिलाषा लिए हुए बहुत लम्बे समय से भजन बन्दगी में व्यस्त रहती
थी। परन्तु उस की इच्छा अनुसार उसे प्रभु के साकार दर्शन की चाहत बनी हुई थी। जबकि
वह जानती थी कि प्रभु तो सर्वव्यापक हैं, वह तो रोम-रोम में रमे राम हैं। वह अपनी
अभिलाषा अनुसार प्रभु को अपने सामने बैठाकर सेवा करना चाहती थी इस कार्य के लिए उसने
बहुत लग्न से कपड़े का एक थान बुना ताकि वह उस कपड़े से वस्त्र बनाकर अपने प्रभु को
भेंट कर सके। किन्तु प्रभु तो उसने देखे ही नहीं थे। अतः वस्त्र किस आकार के बनाए
जाएँ यह उसके सामने समस्या थी। अन्त में उसने प्रभु को थान ही भेंट में दे देने का
निश्चय किया। वह प्रत्येक क्षण आराधना में रहने लगी। कभी-कभार तो वह बिरहा में रूदन
भी करने लग जाती। उसकी सच्ची मानसिक अवस्था को देखकर एक दिन दिव्य जयोति स्वरूप
प्रभु प्रसन्न हुए और उन्होंने अपना साकार रूप धारण करके श्री गुरू तेग बहादर साहिब
जी के रूप में उसके द्वार पर सतकरतार-सतकरतार की आवाज का प्रसारण करते हुए दस्तक
दी। वह आराधना में लीन, दर्शनों के लिए व्याकुल, नेत्रों में जलधारा लिए हुए उठी,
जब द्वार खोला, गुरुदेव के तेजस्वी रूप के दर्शन-दीदार पाते ही सुध-बुध खो बैठी, और
चरणों में गिर पड़ी। जब उसे सुचेत किया गया। तो वह बोली, मैं जब-जब आराधना में लीन
होती थी। तो इसी प्रकाशमय पराक्रमी पुरुष के दर्शन किया करती थी। किन्तु मैंनें तो
शपथ ली थी कि जब तक आप प्रत्यक्ष नहीं प्रकट होते तब तक मैं अपना हठ नहीं छोडूँगी।
आज मेरे अहोभाग्य जो स्वयँ प्रभु रूप होकर मेरे घर में पधारे हो। माता जी द्वारा,
प्रेम से तैयार किया गया, थान गुरुदेव ने सहर्ष स्वीकार करके उसके वस्त्र धारण किए
और माता जी को कृतार्थ किया। माता जसी के आग्रह पर गुरुदेव कुछ दिन उनके पास रहे और
प्रतिदिन कीर्तन प्रवाह चलता रहा। जिसे श्रवण करने के लिए संगत दूर-दूर से इकट्ठी
होने लगी। कीर्तन के पश्चात् गुरुदेव का प्रवचन होता जिससे जनसाधारण लाभाँवित होने
के लिए उमड़ पड़ते।
इआनडीए मानड़ा काइ करेहि ।।
आपनड़ै घरि हरि रंगो की न माणेहि ।।
सहु नेड़ै धन कमलीए बाहरु किआ ढूढेहि ।। राग तिलंग, पृष्ठ 722
अर्थ: हे जीव आत्मा ! प्रभु तो सदैव तेरे साथ है। तुझे वह केवल
इसलिए अनुभव नहीं होता क्योंकि तेरे और प्रभु के बीच अभिमान की दीवार है। उसे
त्यागकर नम्रता में आ जाने से तो वह स्वामी तुझे अपने ही अन्दर दृष्टिगोचर हो सकता
है। वास्तव में उसे कहीं बाहर खोजने की आवश्कयता नहीं।