47. पशुपत्ति मन्दिर (नेपाल की राजधानी
काठमाँडू)
श्री गुरू नानक देव जी चीन से लौटते समय फिर से ल्हासा आए तथा वहाँ से आगे नेपाल की
राजधनी काठमाँडू के लिए प्रस्थान कर गए। वहाँ पहुँचकर आप जी ने पशुपत्तिनाथ मन्दिर
के निकट बाघमती गँगा के किनारे अपना खेमा लगाया। वहाँ पर पर्यटक भी आते रहते थे।
भाई मरदाना जी को हुक्म हुआ कि वह कीर्तन आरम्भ करें। भाई जी ने कीर्तन आरम्भ कर
दिया। मधुर बाणी के आकर्षण से धीरे-धीरे, जनसमूह इक्ट्ठा होने लगा। वहाँ पर
पशुपत्तिनाथ मन्दिर का गोसाईं भी आपका यश सुनकर आपके दर्शनों को आया:
विसमादु नाद विसमादु वेद।।
विसमादु जीअ विसमादु भेद ।।
विसमादु रूप विसमादु रंग।।
विसमादु नांगे फिरहि जंत ।। राग आसा, अंग 463
अर्थ: कई नाद और कई वेद हैं, बेअंत जीव और उनके कई भेद हैं। जीवों
और पदार्थों के कई रूप और कई रँग हैं, ये सब कुछ देखकर विसमाद अवस्था बन रही है। कई
जीव नंगे फिर रहे हैं, कहीं हवा है ओर कहीं पानी है, कहीं अग्नि अजब अचरज खेल कर रही
है। कीर्तन समाप्ति पर कुछ जिज्ञासुओं ने गुरुदेव से अपनी शँका के समाधन के लिए
प्रश्न किए। जिससे उनकी आध्यात्मिक रुकावटें दूर हो सकें। जब गुरुदेव प्रवचन कर रहे
थे। तब पशुपतिनाथ मन्दिर के गोसाई ने प्रश्न किया: कि आप जी केवल निराकार उपासना
में विश्वास बनाए हुए हैं किन्तु हमें तो दोनो में कोई अन्तर मालूम नहीं होता
क्योंकि भक्त को तो उसे आराधना है भले ही वह किसी विधि अनुसार आराधना करें ?
गुरुदेव जी ने कहा: कि सभी जीव हैं जिसे उसने स्वयँ बनाया है तथा स्वयँ उनमें
विराजमान है। जिससे उनमें चेतनता स्पष्ट दिखाई देती है, किन्तु वह सभी वस्तुएँ जड़
हैं जिनको हमने बनाया है। क्योंकि वे चेतन नहीं, इसलिए वे वस्तुएँ या मूर्तियाँ
प्रभु का सगुण स्वरूप भी नहीं हो सकती। अतः हमारी जड़ वस्तुओं के प्रति श्रद्धा भक्ति
निष्फल चली जाती है। क्योंकि हम विचार से काम नहीं लेते और हम स्वयँ उस प्रभु के
बनाए चेतन जीव हैं। हमें जागृति होनी चाहिए कि जब हम स्वयँ चेतन हैं तो हम जड़ को
क्यों पूजें। गोसाई जी ने कहा: कि आपकी बात में तथ्य अवश्य है परन्तु हमारे शास्त्रों
के अनुसार नारद जी ने कहा है कि प्रभु को पूजने के लिए उनके अस्तित्व की काल्पनिक
स्वरूप मूर्ति बना लेनी चाहिए तथा पूजा प्रारम्भ कर देनी चाहिए। गुरुदेव जी ने कहा:
देखो भाई बिना विचार किये गलत साधन प्रयोग करने से व्यक्ति भटकेगा ही तथा परीश्रम
भी व्यर्थ जाएगा। ज्ञान के प्रयोग बिना कार्य करना अंधे व्यक्ति की तरह कार्य करना
है। जो मूर्ति हमारी बात न सुन सकती है न उत्तर देकर कोई समाधन बता सकती है जब वह
स्वयँ भी डूबती है तो हमें कहाँ भवसागर से पार करेगी। यदि बुद्धि पर थोड़ा बल देकर
विचार करें कि समस्त विश्व के पशुओं का पति यह मूर्ति कैसे हो सकती है। क्योंकि पशु
तो असँख्य हैं तथा असँख्य जातियाँ उपजातियाँ है। अतः इस मूर्ति को समस्त पशुओं का
स्वामी कहना मिथ्या है।
हिंदू मूले भूले अखुटी जांही ।।
नारदि कहिआ सि पूज करांही ।।
अंधे गुंगे अंध अंधारु ।।
पाथरु ले पूजहि मुगध गवार ।। राग बिहागड़ा, अंग 556