44. परमतत्व में विलिन होने की शिक्षा
(ल्हासा नगर, तिब्बत)
श्री गुरू नानक देव जी अपने अगले पड़ाव तिब्बत की राजधनी ल्हासा नगर की तरफ चल दिये।
ल्हासा में उन दिनों बौद्ध धर्म का प्रचार सम्पूर्ण रूप में हो चुका था। परन्तु
बोद्धों मे दो अलग-अलग सम्प्रदाय होने के कारण वे लोग आपसी फूट का शिकार थे। पहला
सम्प्रदाय करमा-पा कहलाते हैं। यह लोग निराकार प्रभु की उपासना में विश्वास रखते
हैं तथा लाल टोपी पहनते हैं। दूसरा सम्प्रदाय गैलू-पा कहलाता है तथा पीली टोपी धारण
करता है। यह लोग साकार उपासना मे विश्वास करते हैं अतः महात्मा बुद्ध जी की मूर्ति
बनाकर उसकी पूजा करते हैं। गुरुदेव जब वहाँ पहुँचे तो करमा-पा सम्प्रदाय के लोग
उदारवादी होने के कारण, उनकी बहुत जल्दी गुरुदेव से निकटता बन गई, क्योंकि विचारधारा
में समानता अधिक थी। गुरुदेव ने उन्हें बताया, आप केवल जीव आत्मा की शुद्धि की बात
कहते हैं परन्तु जीव आत्मा की उत्पति कहाँ से हुई तथा उसने कहाँ विलय होना है। इन
सब बातों के लिए आप शान्त हैं। वास्तव में जीव आत्मा अमर है। इसकी उत्पति परमात्मा
से हुई है। तथा इसका विलय शुद्धि-करण के पश्चात् ही परम तत्व में होगा। जिसकी आप
चर्चा नहीं करते। जब तक आप परमतत्व को नहीं मानते आपकी साधना अधूरी है तथा फल की
प्राप्ति नहीं हो सकती क्योंकि बिना लक्ष्य निर्धारण के निशाना सदैव चूक जाता है।
हम जो प्रकृति देख रहे हैं यह परमतत्व के बिना उत्पन्न नहीं हुई इस सभी कुछ में वह
स्वयँ विलीन है क्योंकि वह एक मात्र इसका कर्त्ता है जो कि अपनी कृति में स्वयँ रमा
हुआ है।
आतम महि रामु राम महि आतमु चीनसि गुर बीचारा ।।
अंम्रित वाणी सबदि पछाणी दुख काटै हउ मारा ।। 1 ।।
नानक हउमै रोग बुरे ।।
जह देखा तह एका बेदन आपे बखसै सबदि धुरे ।। रहाउ ।। जन्म साखी
यह उपदेश करमा-पा समुदाय के मन को जीत गया। उनके लामा तथा
भिक्षुक आपके तर्को के सामने झुक गए तथा आगे के लिए मार्ग दर्शन पाने की इच्छा करने
लगे। इसके विपरीत गैलू-पा साकार उपासना त्याग नहीं पाए क्योंकि इसमें उन लामा लोगों
का व्यक्तिगत स्वार्थ छिपा था कि यदि ऐसा हो गया तो हमारी पूजा कैसे होगी तथा हमारी
जीविका के साथ हमारा सम्मान सत्कार आदि भी जाता रहेगा। अतः वह गुरुदेव के दर्शाए
मार्ग पर चलने को तैयार नही हुए और अपनी मनमानी से मूर्ति पूजा जिसमें व्यक्ति
विशेष का बोध होता था, उस में जुटे रहे। पहले से ही दोनों सम्प्रदायों में सिद्धाँतो
की भिन्नता थी। गुरुदेव के सम्पर्क से करमा-पा वर्ग के लोग गुरुदेव के अनुयायी बन
गए जिस कारण गैलू-पा अर्थात पीली टोपी वाले वर्ग के लोग ईर्ष्या करने लगे जिस कारण
दोनों पक्षो में मन मुटाव पहले से अधिक हो गया इसके साथ ही गैलू-पा वर्ग अर्थात पीली
टोपी वालो की राजनैतिक शक्ति बढ़ गई। उनका लहासा पर पूर्ण अधिकार हो गया। जिससे
उन्होंने अपने प्रतिद्वंदी करमा-पा वर्ग के लोगों को मार दूर भगा दिया। परन्तु वे
आज भी जहां कहीं भी है गुरू नानक देव जी की बाणी पढ़ते हैं उनको आदर से नानक लामा
पुकार कर याद करते हैं।