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43. विकास की राह (चुँगथाँग, सिक्किम)
गुरुदेव वहाँ से प्रस्थान करके तिसता नदी के किनारे होते हुए चुँगथाँग गाँव पहुँचे।
यह स्थान लाचेन तथा लाचँग नामक दो नदियों का आपस में मिलन स्थल है उसके आगे उनके
बहाव को तिसता नदी के नाम से पुकारा जाता है। वास्तव में वह स्थल रमणीक है, अतः एक
विशाल चट्टान के ऊपर जाकर गुरुदेव विराजमान हो गये तथा भाई मरदाना जी के साथ कीर्तन
करने लगे। फिर क्या था, वहाँ गाँव वासियों की कोंतुहलवश भीड़ इकट्ठी हो गई। परदेशी
महापुरुषों को देखकर स्थानीय गुम्फा मठ के लामा भी ज्ञान चर्चा करने को आए। सभी के
आग्रह पर गुरुदेव ने कीर्तन पुनः जारी करवा दिया। जिसका उनके मन पर बहुत अच्छा
प्रभाव पड़ा:
रे मन ऐसी हरि सिउ प्रीति करि जैसी जल कमलेहि ।।
लहरी नालि पछाड़ीऐ भी विगसै असनेहि ।।
जल महि जीअ उपाइ कै बिनु जल मरणु तिनेहि ।।
मन रे किउ छूटहि बिनु पिआर ।।
गुरमुखि अतरि रवि रहिआ बखसे भगति भंडार ।। रहाउ ।।
राग आसा, अंग 59
तभी एक लामा ने गुरुदेव से प्रश्न किया, आप कृप्या बताए कि हम
प्रभु भजन या चिन्तन किस प्रकार किया करें जबकि आप माला फेरना या लट्टू को चक्र रूप
में घुमाना एक कर्मकाण्ड या पाखण्ड मानते हैं। तब गुरुदेव ने उपरोक्त रचना के अर्थ
बताए कि उन्हें प्रभु से उसी प्रकार स्नेह करना चाहिए जिस प्रकार कमल का फूल जल से
प्यार करता है या मछली पानी के बिना जी नहीं सकती ठीक इसी प्रकार से भक्त को प्रभु
से प्यार करना चाहिए अर्थात प्रत्येक क्षण उसकी याद में रहना चाहिए। गुरुदेव के लिए
कई श्रद्धालु खाद्य पदार्थ तथा उपहार लाए। खाद्य पदार्थ गुरुदेव ने भाई मरदाना को
देकर कहा कि वह संगत में उसको प्रसाद रूप में बाँट दें। इस प्रकार प्रतिदिन
श्रद्धालुओं के अनुरोध पर सतसँग होने लगा। और गुरुदेव के प्रवचनों को श्रवण करने
दूर-दूर से जिज्ञासु आने लगे। जनसाधारण में से बहुत लोगों ने आपसे गुरू दीक्षा ली
और आध्यात्मिक शँकाओ के समाधान प्राप्त कर, आपके परामर्श अनुसार जीवन जीने का
सँकल्प लेकर गुरुमति जीवन जीने लगे। स्थानीय निवासियों के पास अनाज की कमी के कारण
उनको माँस आहार पर अधिक निर्भर रहना पड़ता था अतः आपने उनकी समस्या के समाधन हेतु वहाँ
के किसानों को पँजाब की भाँति विकसित धन उगाने की विधि स्वयँ उनके साथ खेतो में हल
चलाकर तथा बुआई करके सिखाई। जिससे वह भी अनाज के मामले में आत्म निर्भर हो सकें।
स्थानीय जनता में आप परम प्रिय हो गए। जिस कारण वे लोग आपको नानक लामा कहकर पुकारने
लगे। आप द्वारा बनवाई गई धर्मशाला का नाम भी उन्होंने नानक लामा सतसँग रखा। कुछ दिन
सिक्किम के चुँगथाँग कस्बे मे रहने के पश्चात् गुरुदेव ने तिब्बत जाने का कार्यक्रम
बनाया। स्थानीय जनता से विदाई लेकर आप लाचूँग से तत्ता पानी नामक झील से होते हुए
पर्वतों के उस पार तिब्बत की ओर प्रस्थान कर गए।
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