42. लामाओं को शिक्षा (गँगटोक नगर,
सिक्कम)
श्री गुरू नानक देव जी भूटान की जनता से विदा लेकर पड़ोसी राज्य सिक्कम में काली
पोंग से होते हुए गँगटोक पहुँचे तो वहाँ पर आपकी भेंट लामा लोगों से हुई जिनके हाथों
में चरखियाँ थीं और वे उन्हें घुमा रहे थे, उन चरखियों मे बन्धे घुँघरू, संगीत जैसी
ध्वनी उत्पन्न कर रहे थे। उनका विश्वास है कि किसी विशेष वस्तु को घुमाने भर से
प्रभु भजन प्रारम्भ हो जाता है। जिस प्रकार माला के मनके फेरने भर से लोग अपने आपको
भजन में व्यस्त मान लेते हैं। परन्तु गुरुदेव ने उनसे असहमति प्रकट की और कहा प्रभु
लीला में तो उन्हें सब कुछ घूमता हुआ तथा चक्र लगाकर परिक्रमा करता हुआ दिखाई देता
है। यह सब कुछ प्रभु भजन कदाचित नहीं है। लामा लोगों ने अपने विश्वास अनुसार
जगह-जगह पानी के झरनों पर पानी के वेग से चलने वाली चरखियाँ बना रखी थी। जिनके साथ
घुँघरू बांधे हुए थे। जो कि स्वयँ बिना रुके घूमती रहती थीं। उनका चरखियों के बारे
में मत था कि वह धरती को एक रस प्रभु चिन्तन में जोड़े हुए हैं। अतः उस में विघ्न नहीं
पड़ना चाहिए। परन्तु गुरुदेव उनके भोले पन पर हंस दिये और कहने लगे, प्रभु से
सम्बन्ध, हृदय से स्मरण, याद करने भर से, जुड़ जाता है। यह हाथ में चरखी नुमा लटटू
घूमाने से नहीं। यह क्रिया केवल यान्त्रिक है, जिससे आप अपने आपको धोखा दे रहे हैं।
तब गुरुदेव ने शब्द उच्चारण किया:
लाटू माधणीआ अनगाह ।।
पंखी भउदीआ लैनि न साह ।।
सूऐ चाड़ि भवाईअहि जंत ।।
नानक भउदिआ गणत न अंत ।। राग आसा, अंग 465
गुरुदेव के तर्क के आगे सब लामा निरूतर हो गए। तथा गुरुदेव के
चरणों में गिरकर गुरू दीक्षा के लिए प्रार्थना करने लगे। गुरुदेव ने उन्हें कहा,
भजन करना शारीरिक क्रिया नहीं है। यह तो मन की एक विशेष अवस्था है। जिसमें व्यक्ति
अपने प्यारे की याद में खोया रहता है। कभी कभार तो व्यक्ति अपनी सुध भी खो बैठता
है। इस कार्य के लिए कोई विशेष समय, विशेष स्थान तथा विशेष साधन की सामग्री इत्यादि
का भी कोई महत्व नहीं। साधक का मन कभी भी एकाग्र हो सकता है। बस साधक को अपने आपको
समर्पित करके प्रार्थना करनी है। जिससे वह कृपा के पात्र बन सकें तभी ‘गुर प्रसादि’
अर्थात प्रभु की कृपा दृष्टि गोचर होती है।