4. व्यापारी दुनी चन्द (लाहौर)
जब सूर्य उदय हुआ तो वहाँ का एक प्रसिद्ध यापारी दुनी चन्द पूजा के लिए ठाकुरद्वारे
आया, तो उस ने लौटते समय गुरुदेव को एक सन्यासी जानकर अपने यहाँ पितृ–भोज पर
आमन्त्रित किया। गुरुदेव ने उसका मार्ग दर्शन करने के लिए वहाँ सम्मलित होना
स्वीकार कर लिया। आपने उसके पितृ–भोज प्रारम्भ के समय उपदेश दिया कि पितृ लोक नाम
का कोई अलग से स्थान नहीं है। प्रत्येक प्राणी को अपने कर्मों अनुसार यहीं पर दूसरा
शरीर धारण करके फल भोगना पड़ता है। यदि व्यक्ति सत्य कर्म करता है, तो हो सकता है वह
प्रभु में लीन हो जाए जैसे सागर में गँगा समा जाती है अन्यथा वह पुनः-पुनः इस मृत्यु
लोक में जन्म–मरण के चक्र में बँधा रहता है। यह आवागमन का चक्र तब तक समाप्त नहीं
होता जब तक प्राणी स्वयँ उस प्रभु की कृपा का पात्र नहीं बनता। वस्तुतः श्राद्ध करना
एक कर्म-काण्ड मात्र ही है। इन कार्यो से मृत आत्मा को कोई लाभ होने वाला नहीं,
क्योंकि न जाने मृत आत्मा किस यौनि में शरीर धारण करके भ्रमण कर रही हो। यह भोज तो
केवल ब्राह्मण वर्ग की उदर पूर्ति का साधन है। इसलिए माता–पिता की सेवा उनके जीवन
में ही करनी चाहिए। मृत्यु के पश्चात् सेवा, कोई सेवा न होकर केवल जगत दिखावा ही
है। यदि एक विश्वास के अनुसार मान भी लिया जाए कि कोई पितृ लोक है तो यहाँ से किया
गया श्राद्ध–भोज पूर्वजों को मिलेगा। तब प्रश्न यह उठता है कि कुछ एक लोग जो
भ्रष्टाचार से धन अर्जित कर के ब्राह्मणों को दक्षिणा में जो दान देते है तथा जो
वस्तुएँ चोरी की हैं अथवा दूसरों के धन माल की है, वह तो आगे पितृ–लोक में पहचान ली
जाएँगी क्योंकि वहाँ तो सत्य तथा न्याय का बोल–बाला है अतः ऐसे चोरी के माल को
पहुँचाने वाले दलाल ब्राह्मण के हाथ काट दिये जाते हैं:
जे मोहाका घरु मुहै घरु मुहि पितरी देइ ।
अगै वस्तु सिञाणीऐ पितरी चोर करेइ ।।
वढीअहि हथ दलाल के मुसफी एह करेइ ।
नानक अगै सो मिलै जि खटे घाले देइ ।। राग आसा, अंग संख्या 472
यह विनोद भरी बातें सुनकर गुरुदेव के तर्को के आगे सब ही शान्त
होकर अपनी भूल का प्रायश्चित करने लगे।