39. कामाख्या मन्दिर (‘गोहाटी’, आसाम)
श्री गुरू नानक देव जी कामरूप से होते हुए गोहाटी नगर में पहुँचे। वहाँ पर एक पर्वत
की चोटी पर कामाख्या देवी का मन्दिर है। कहा जाता है कि वह मन्दिर शिव की पत्नी सती
के गुप्त अँग के वहाँ गिरने से अस्तित्व में आया है। वहाँ पर स्थानीय लोग गुप्त
इन्द्री अर्थात योनिमार्ग, भग की पूजा करते हैं। अतः वहाँ वाम-मार्ग का प्रचार होता
है। इसलिए उस स्थान को योनिपीठ भी कहा जाता है। वह मन्दिर तँत्र शास्त्र के अनुसार
शिव-उपासको द्वारा चलाया हुआ है। ये लोग धर्म तथा आचरण से गिरे हुए कर्मो को धर्म
का आवश्यक अँग समझते हैं। मन्दिरों में माँस मदिरा, और मैथुन पवित्र समझे जाते हैं।
वहाँ बहुत सी पर्वत-धारायें हैं। उन दिनों उनमें विभिन्न कबीलों का अपना-अपना शासक
था। जर-जोरू और जमीन की मलकियत के लिए इन कबीलो में परस्पर झगड़े होते थे। उनकी
धार्मिक बोली, कोड वर्ड भी भिन्न भिन्न प्रकार से थी। वे माँस को ‘सुध’, मदिरा,
शराब को ‘तीरथ’, शराब के प्याले को ‘पद्म’ कलाल को ‘दीक्षित’, वेश्यागामी को
‘प्रयाग गामी’ तथा व्याभिचारी को ‘योगी’ कहते थे। वे इन कर्मों को मुक्ति का साधन
मानते थे। अपनी संगत को भैरवी चक्र कहते थे और इन भैरवी चक्रो में नशो का सेवन तथा
खुले तौर पर व्यभिचार किया जाता था। गुरुदेव ने वहाँ के पुजारियों को ललकारा और कहा,
यदि यही कुकर्म धर्म है। तो अधर्म की क्या परिभाषा होनी चाहिए ? किसी पूजनीय स्थल
से कुकर्म के लिए मार्ग खोलना घोर अनर्थ है। अतः स्वयँ को धोखा देना है। प्रभु के
समक्ष सभी को अपने कर्मों का लेखा जोखा देना ही है। इस तरह धर्म की आड़ लेकर तुम बच
नहीं सकते। गुरुदेव का प्रश्न था, तुम्हारी कहानी अनुसार शिव पत्नी के शरीर के
भिन्न-भिन्न अंगो के गिरने से जो पवित्र स्थान उत्पन्न हुए। सभी में एक मर्यादा तथा
एक उपासना प्रणाली चाहिए। किन्तु पश्चिम से पूर्व तक फैले हुए इन मन्दिरों में केवल
तुम्हारे यहाँ ही माँस, मदिरा, व्यभिचार को मान्यता है जबकि जम्मू क्षेत्र में ठीक
इसके विपरीत देवी के पुजारी एक उच्च प्रकार का त्यागी, परहेजगार जीवन जीते हैं।
अर्थात माँस, मदिरा, व्याभिचार की वहाँ पर बहुत सख्ती से मनाही है। ऐसे में अब आप
ही बताएँ कि आप में से कौनसे सत्य मार्ग का राही हैं। अर्थात कौन ठीक है और कौन गलत।
गुरू जी ने आगे कहा कि समस्त महापुरुषों का मत है कि उच्चे आचरण के बिना प्रभु
प्राप्ति हो ही नहीं सकती। न ही आध्यात्मिक दुनियाँ में कोई ऐसा मनुष्य प्रवेश पा
सकता है क्योंकि वहाँ पर ऊँचा आचरण ही एक मात्र सब कुछ है। गुरुदेव के इन तर्कों का
पुजारी वर्ग कोई उत्तर न दे पाया। इस प्रकार वे सभी पराजित होकर गुरुदेव की शरण में
आए और प्रार्थना करने लगे कि उन्हें सत्य का मार्ग दिखाएँ। गुरुदेव ने इन विषम
परिस्थितियों में कहा, शुद्ध आचरण ही मनुष्य को सत्य मार्ग पर ले जाता है। अतः
सत्याचरण ही सर्वोत्तम है।
सचहु ओरै सभु को उपरि सचु आचारु ।। सिरी राग, अंग 62
सत्य बोल लेने मात्र से ही समाज का कल्याण नहीं हो जाता। समाज
के कल्याण के लिए अति आवश्यक है कि मनुष्य उसी सत्य के अनुसार अपना आचरण भी बनायें।
पण्डित देवी प्रसाद बोस ने गुरुदेव के समक्ष याचना की कि हे ! गुरुदेव उसे वे अपना
शिष्य बनाएँ। इस पर गुरुदेव ने उन्हें गुरू दीक्षा दे कर कृतार्थ किया तथा कहा आप
यहाँ पर गुरूमत का प्रचार प्रसार किया करें।