37. राजा देव लूत’ (नागा पर्व,
नागालैंड)
चिटगाँव से प्रस्थान करके श्री गुरू नानक देव जी कई महत्वपूर्ण स्थानों से होते हुए
तथा कई लोगों से मिलते हुए आदिवासी क्षेत्र में पहुँचे। वहाँ पर दो कबीलों का
परस्पर झगड़ा सदैव बना रहता था। अधिक शक्तिशाली कबीले का सरदार देवलूत नाम का व्यक्ति
था जो कि वास्तव में बहुत क्रूर था। वह विरोधी पक्ष के व्यक्तियों को बहुत बेदर्दी
से मौत के घाट उतार देता था जिसके कारण दोनो पक्षों में प्रतिशोध की भावना से
समय-असमय गुरीला युद्ध होता ही रहता था तथा वे एक दूसरे को क्षति पहुँचाने की होड़
में लीन रहते थे। जिससे उस क्षेत्र का विकास नहीं हो सका। प्रत्येक क्षण अनिश्चितता
के कारण खेती-बाड़ी इत्यादि भी नहीं हो पाती थी। इसलिए भोजन का एक मात्र साधन
कन्दमूल फल तथा शिकार ही थे। वस्त्र इत्यादि के लिए साधन, धन, इत्यादि न जुटा पाने
के कारण नर-नारी केवल जन्नेन्द्रियाँ ढकने के लिए घास या पत्तों का प्रयोग करते थे।
जब गुरुदेव वहाँ पहुँचे तो देवलूत कबीले के व्यक्ति झट से इनको पकड़कर अपने सरदार के
पास ले गए। उनका विचार था कि शायद गुरू नानक देव जी तथा उनके साथी कहीं विरोधी पक्ष
के सहयोगी तो नहीं ? देवलूत अपनी विकराल आकृति के कारण पहले ही भयँकर दिखाई देता
था। उपर से वह क्रोध में गरजने लगा किन्तु गुरुदेव को शान्त भाव में देखकर चकित हो
गया। गुरू जी ने उसे अपनी मीठी वाणी में समझाने का प्रयत्न किया कि वे उसके यहाँ
अतिथि आए हैं। उसका अतिथियों से व्यवहार अच्छा नहीं। गुरुदेव की वैभवशाली प्रतिभा
से वह बहुत प्रभावित हुआ और उसने गुरुदेव के लिए भोजन की व्यवस्था तुरन्त करने को
कहा और गुरुदेव से विचार विमर्श करने लगा।
गुरुदेव ने उसे समझाया: उसके दुखों का कारण आपसी कलह कलेश है।
यदि वह सुलझा लिया जाए तो वे सब मिलकर एक बहुत बड़ी शक्ति बन सकते हैं, जिससे उनके
जीवन स्तर में एक क्रांति आ सकती है तथा वे बिना किसी भय के एक स्थिर जीवन व्यतीत
कर सकते हैं जिससे वे सब प्रगति के मार्ग पर चल पड़ेंगे। जैसे कि मैदानी क्षेत्र के
लोग, वहाँ पर शान्ति होने के कारण बहुत आगे निकल गये हैं तथा वह लोग सभ्य कहलाते
है। गुरुदेव का यह कथन देवलूत को अच्छा लगा। वह गुरुदेव से कहने लगा: मैं भी बहुत
लम्बे समय से चली आ रहीं आपसी लड़ाई से तँग आ गया हूँ। वास्तव में हम भी शान्ति चाहते
हैं। परन्तु यह कैसे सम्भव हो सकती है ? क्योंकि हमारे में शत्रुता कभी भी समाप्त
होने वाली नहीं बल्कि बदले की भावना प्रत्येक क्षण बढ़ती जाती है। जिस कारण दोनो
पक्षों पर विपत्तियों का पहाड़ गिरा हुआ है। कोई भी दिन चैन से नहीं गुजरता। गुरुदेव
कहने लगे: हम, दोनों "कबीलों" का परस्पर "समझौता" करवाने की चेष्टा करते हैं। यदि
तुम हमारी शर्तें स्वीकार करते हों तो यह असम्भव भी सम्भव हो सकता है। देवलूत कहने
लगा: वे शर्तें क्या होंगी ? गुरुदेव का उत्तर था: बस "विरोधी पक्ष के कबीलों" को
भी अपने जैसे जीने का अधिकार देना है, उनसे दुर्व्यवहार नहीं करना। मुख्य झगड़ा तो
एक दूसरे से घृणा करने का है जब आप उनको जीने का समान अधिकार देगें। तो झगड़े स्वयँ
समाप्त हो जाएंगे। देवलूत ने इस तथ्य पर सहमति प्रकट की। एक दिन उसके सिपाही विरोधी
कबीले के कुछ व्यक्तियों को पकड़ कर ले आए। और देवलूत से कहा: यह लोग हमारी बस्तियों
को जलाने आये थे। परन्तु हमने समय रहते इन्हे पकड़ लिया है। यह सुनते ही देवलूत ने
उनके लिए मृत्युदँड की घोषणा तुरन्त कर दी किन्तु गुरुदेव ने हस्तक्षेप किया। और कहा:
नहीं ! यहीं पर तुम भूल कर रहे हो। यही वह समय है जिस का लाभ उठाते हुए तुम दोनों
कबीलों का लम्बे समय से चला आ रहा झगड़ा सदा के लिए समाप्त कर सकते हो। देवलूत पूछने
लगा: अब मुझे क्या करना चाहिए ? गुरुदेव ने उसे परामर्श दिया: उन कैदियों से बहुत
भद्र व्यवाहर किया जाए तथा उनका मन जीता जाए, इसके पश्चात् इन्ही लोगों के हाथों
संदेश भेजकर विपक्षी कबीले के सरदार तथा उनके सहयोगियों से समझौते की वार्ता चलाई
जाए। आशा है इस अच्छे कार्य में सफलता अवश्य मिलेगी। देवलूत को गुरुदेव का सुझाव
अच्छा लगा। उसने कैदियों से बहुत अच्छा व्यवहार किया तथा उन्हे गुरुदेव से मिलाया।
गुरुदेव ने उन कैदियों को समझाया बुझाया कि परस्पर प्यार से मिलजुल कर रहने में ही
सबका भला है। वे सब एक समझौते के लिए अपने कबीले को सहमत करें। यह प्रस्ताव उनको भी
अच्छा लगा। वास्तव में वे भी ऐसा चाहते थे। अतः वे भी तुरन्त मान गये। इसलिए उनको
स्वतन्त्र कर दिया गया ताकि वह अपने कबीले को इस कार्य के लिए प्रेरित कर सकें। कुछ
दिन बाद गुरुदेव की मध्यस्ता में दोनों पक्षों की सभा हुई। गुरुदेव से प्रेरणा पाकर
देवलूत ने बहुत उदारता का परिचय दिया। अतः विपक्षी कबीले ने भी आतँक न करने का
आश्वासन दिया तथा शपथ ली की यदि उन्हें समानता से जीने का अधिकार मिल जाए तो वे
प्रतिशोध की भावना का त्याग कर देगें। गुरुदेव ने अपनी देखरेख में दोनो कबीलों का
मिलन करवाया तथा सभी ने भातृत्व की भावना से जीने की इच्छा व्यक्त की। इस प्रकार
आदिवासी नागा पर्वतीय क्षेत्र की लम्बे समय से चली आ रही आपसी शत्रुता, गृहयुद्ध
जैसी परिस्थिति सदैव के लिए समाप्त हो गई। वे लोग अगामी जीवन में उन्नति के पथ पर
चलने लगे। गुरुदेव ने अपना आगे प्रस्थान का कार्यकर्म बनाया।