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35. ढाकेश्वरी मन्दिर (ढाका, बँगला देश)

श्री गुरू नानक देव जी जिला जैस्सोर छोड़कर ढाका के लिए प्रस्थान कर गए। उन दिनों वहाँ घने जँगल हुआ करते थे तथा जँगलों में ‘ढाकेश्वरी देवी’ नाम से एक मन्दिर प्रसिद्ध था। इस ढाकेश्वरी मन्दिर के निकट का गाँव ढकेश्वरी गाँव कहलाता था परन्तु वहाँ अधिक आबादी नहीं थी। इस का कारण एक यह भी था कि वहाँ नदियों के जल के अतिरिक्त मीठे पानी का कोई और स्रोत न था जो भी पानी वहाँ उपलब्ध था वह खारा था। जब गुरुदेव वहाँ पहुँचे तो उन दिनों ढाकेश्वरी मन्दिर में वार्षिक उत्सव था। अतः अपार श्रद्धालु वहाँ पूजा अर्चना के लिए पहुँच रहे थे। गुरुदेव ने भी मन्दिर के निकट डेरा लगा लिया और कीर्तन आरम्भ कर दिया कीर्तन के आकर्षण से बहुत भीड़ इकट्ठा हो गई। उस समय गुरुदेव शब्द उच्चारण करने लगे। वार्षिक उत्सव होने के कारण वहाँ दूर-दूर से साधु सन्यासी तथा सिद्ध लोग आए हुए थे। वे अपने-अपने खेमे लगाकर लोगों से पूजा के बहाने धन एकत्र करने में लगे हुए थे। इनमें मुख्य रूप में लुटिया सिद्ध, मैल नाथ, रविदास, नारायण दास, चाँदनाथ इत्यादि थे। गुरुदेव के मधुर कीर्तन श्रवण करने आई भीड़ को देखकर उन लोगों को एहसास होने लगा कि वे तो भटके हुए मनुष्य हैं परम पिता परमेश्वर तो सर्वव्यापक है वह तो पत्थर की मूर्ति हो ही नहीं सकता अतः वे सभी गुरुदेव से आग्रह करने लगे कि वे उन्हें इस विषय में विस्तार पूर्ण ज्ञान दें। तब गुरुदेव ने अपने प्रवचनो में कहा कि, ईश्वर का, जो जन्म रहित है, उसका पत्थर या मिट्टी से निर्माण नहीं किया जा सकता। परमात्मा कण-कण में निवास करते हैं। वही सब मनुष्यों के इष्टदेव है और उन्हीं का स्मरण, आत्म-शक्ति के लिए आवश्यक है। हमें अपने हृदय में ही उसे खोजना चाहिए क्योंकि वह सर्वव्यापक है। इसलिए सँसार से भागने की भी कोई आवश्यकता नहीं है। हम उस प्रभु की बनाई चेतन मूर्तियाँ हैं वह स्वयँ घट-घट में विद्यमान है परन्तु हमारे द्वारा निर्मित जड़ मूर्ति में वह नहीं हो सकता। जब हम स्वयँ चेतन है तो हमें जड़ मूर्ति से क्या मिलेंगा जो कि हमारी स्वयँ की उत्पति है। इसलिए हमें अँधविश्वास के अंधेरे में नहीं भटकना चाहिए। इस प्रकार के कार्य व्यर्थ में समय गँवाने के बराबर है तथा हमारा प्रत्येक कार्य निष्फल चला जाता है अतः हमें सत्य की खोज जागरूक होकर करनी चाहिए।

अंधे गूँगे अंध अंधारु पाथरु जे पूजहि मुगध गवार ।।
ओहि जा आपि डुबे तुम कहा तरणहारू ।। राग बिहागडा, अंग 556

गुरुदेव के प्रवचनो की धूम मच गई। सभी जनसमूह, गुरुदेव की शिक्षा धारण करने आने लगे। कुछ भक्तजनों ने गुरुदेव को उपहार स्वरूप शक्ति का प्रतीक खण्डा भेंट में दिया जो कि वह ढाकेश्वरी देवी के लिए लाए थे। गरूदेव जी ने उनकी भेंट इस शर्त पर स्वीकार कर ली कि यह अगामी जीवन में निराकार प्रभु एक ईश्वर की उपासना में व्यतीत करेंगे। कुछ भक्तजनों ने गुरुदेव की सेवा में निवेदन किया कि वहाँ पर मीठे जल का अभाव है यदि उनकी समस्या हल हो जाए तो वह वहाँ पर धर्मशाला बनवाकर उनके उपदेशों के अनुसार नित्य प्रति सतसँग करके निराकार उपासना का प्रचार-प्रसार करेंगे। तब गुरुदेव ने स्थानीय पाँच कुलीन व्यक्तियों को सँगत में मिलाकर प्रभु चरणों में प्रार्थना करने को कहा। जब प्रार्थना समाप्त हुई तो गुरुदेव ने उसी खण्डे से, जो उन्हें भक्तों द्वारा भेंट में मिला था, कुँआ खुदवाना प्रारम्भ किया। जैसे ही सँगत कुँआ खोदते हुए पानी तक पहुँची तो वहाँ मीठे जल का स्त्रोत मिल गया। सभी की खुशी का ठिकाना न रहा। अतः उसी दिन सतसँग के लिए वहाँ धर्मशाला की आधार शिला रखी गई।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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