34. भाई भूमिया जी (जैस्सोर, बँगला
देश)
श्री गुरू नानक देव जी आगे यात्रा करते जिला जैस्सोर में पहुँचे। वहाँ पर एक बहुत
बड़ा जमींदार था जिसे लोग प्यार से भूमिया जी अर्थात भूमि का स्वामी कहते थे। वास्तव
में वह एक विशाल हृदय का स्वामी था। अतः दीन दुखियों की सेवा के लिए सदैव तत्पर रहता
था। उस व्यक्ति ने अपने यहाँ जनसाधारण के लिए लँगर, भण्डारा चला रखा था कि कोई भी
उस क्षेत्र में भूखा नहीं सोएगा। अतः सभी जरूरतमँद लोग बिना किसी भेदभाव
अन्न-वस्त्र ग्रहण कर सकते थे। आसपास के क्षेत्रों में इसकी बहुत प्रसिद्धि थी।
गुरुदेव जब उस कस्बे में पहुँचे तो उसके कानों में भी गुरुदेव के प्रवचनों की महिमा
पहुँची। वह तुरन्त ही गुरुदेव की मण्डली में जा पहुँचा तथा निवेदन करने लगा कि आप
मेरे घर में भी पधारें। मैं आपकी सेवा का सौभाग्य प्राप्त करना चाहता हूँ। भूमिया
के आग्रह को देखते हुए गुरुदेव ने प्रश्न किया: वह क्या कार्य करते हैं तथा उसकी आय
का क्या साधन है जिस से वह लँगर चला रहे हैं ? इस प्रश्न को सुनकर भूमियां संकोच
में पड़ गया, क्योंकि लंगर के विशाल खर्च के कारण वह आवश्यकता पड़ने पर कभी-कभार डाका
डाला करता था। उत्तर न मिलने के कारण गुरुदेव ने कहा: कि हम आप के यहाँ नहीं जा सकते
क्योंकि आप सही परीश्रम करके आय नहीं जुटाते। यह सुनकर भूमिया बहुत निराश हुआ तथा
उसने गुरुदेव के चरण पकड़ लिए। वह कहने लगा: हे गुरुदेव जी ! मैं आपकी प्रत्येक आज्ञा
का पालन करूँगा। बस एक बार मेरे घर पर भोजन ग्रहण करें। इस पर गुरुदेव ने कहा: सोच
लो वचन मानना बहुत कठिन कार्य है। भूमिया ने आश्वासन दिया: आप आज्ञा तो करें। तब
गुरुदेव ने कहा: भ्रष्टाचार से अर्जित धन त्याग दें। यह वचन सुनकर भूमिया चौंककर
कहने लगा: गुरुदेव ! इतनी कठिन परीक्षा में न डालें इसके अतिरिक्त कोई भी वचन मुझे
कहोगे मैं मान लूँगा। गुरुदेव ने उसकी कठिनाई को समझा और कहा: ठीक है ! यदि तुम
हमारा पहला वचन नहीं मानना चाहते हो कोई बात नहीं किन्तु उस एक के स्थान पर अब तीन
बचनों का पालन करना होगा। भूमियां सहमत हो गया। गुरुदेव ने कहा: हमारा पहला वचन है
कि तुम झूठ नहीं बोलोंगे। भूमिया ने कहा: सत्य वचन जी, ऐसा ही होगा। तब गुरुदेव ने
कहा: दूसरा वचन है गरीबों का शोषण न करोंगे, न होते देखोंगे। तीसरा बचन है जिसका
नमक खाना, उसके साथ दगा नहीं करना। भूमियां ने यह तीनो बचन सहर्ष पालन करने स्वीकार
कर लिए। गुरुदेव ने फिर कहा: कि किन्तु अभी जो भोजन हमें कराओंगे वह धन तुम परीश्रम
करके कमा कर लाओगे। भूमियां ने इस बात के लिए भी स्वीकृति दे दी और स्वयँ जँगल में
जा कर वहाँ से ईधन के योग्य लकड़ियों का गठ्ठरा लाकर बाजार में बेचा, उससे मिले दामों
से रसद लाकर भोजन तैयार करके, गुरुदेव को सेवन कराया। गुरुदेव सन्तुष्ट हुए तथा
आर्शीवाद दिया। तुम्हारा कल्याण अवश्य होगा।गुरुदेव के जाने के कुछ दिन पश्चात्
भूमिया को यथा पूर्वक लँगर चलाने के लिए धन की आवश्यकता पड़ी तो वह सोचने लगा कि अब
धन कहाँ से प्राप्त किया जाए, गरीबो का शोषण तो करना नहीं है। अतः उसने स्थानीय
राजमहल में चोरी करने की योजना बनाई। एक रात राज कुमारों जैसी वेषभूषा धारण करके
सुन्दर घोड़े पर सवार होकर राजमहल में पहुँच गया। वहाँ पर उसको सँतरी ने ललकारा: कौन
है ? इस ललकार को सुनकर भूमिया ने सोचा, झूठ नहीं बोलना। अतः तुरन्त उत्तर दिया: जी
! मैं चोर हूँ। उसका यह उल्टा उत्तर सुनकर सँतरी भयभीत हो गया। तथा सोचा कोई माननीय
व्यक्ति होगा। और उसकी रूखी भाषा से नाराज हो गया है। अतः सँतरी ने कहा: महोदय !
क्षमा करें आप अन्दर जा सकते हैं। भूमियां जी ने अन्दर जाकर खज़ाने तथा भण्डारों के
ताले तोड़कर आभूषणों की भारी गठरी बाँधी, जब चलने लगा तो मन में आया, कुछ खा लिया
जाए अतः रसोई घर में वहाँ धुन्धले प्रकाश में एक तश्तरी में रखे पदार्थ को खाया जो
कि नमकीन था। जैसे ही उसने पदार्थ सेवन किया, वैसे ही वहीं गुरुदेव को दिये बचन की
उसे याद हो आई कि नमक हरामी नहीं बनना। बस फिर क्या था सभी अमूल्य पदार्थ वहीं
छोड़कर वापस घर को चला आया।
दूसरे दिन जब सुबह राजकर्मचारीयों ने चोरी की सूचना दी तो राजा
ने जाँच करवाई परन्तु वहाँ तो कुछ भी चोरी नहीं हुआ था। राजा को आश्चर्य हुआ कि कौन
व्यक्ति हो सकता है जो ऐसी जगह चोरी करने का दुरसाहस कर सकता है ? ढुंढो उसे !
सिपाहियों ने शक के आधार पर कई निर्दोष व्यक्ति को दण्डित करना तथा पीटना शुरू कर
दिया। जब इस बात की जानकारी भूमियां को मिली तो उनसे न रहा गया। वह सोचने लगा कि
गुरू जी को वचन दिया है कि गरीबों का शोषण नहीं होने दूँगा अतः उसके बदले में कोई
गरीब बिना कारण क्यों दण्ढ पाए। उससे वह अन्याय सहन नहीं हो पाएगा इसलिए उसे अपना
अपराध स्वीकार करने के लिए राजा के पास उपस्थित होना चाहिए। उसने ऐसा ही किया।
परन्तु राजा उसके सत्य पर विश्वास ही नहीं कर पा रहा था, कि भूमियां जी चोर हो सकता
है। राजा का कहना था कि वह बहुत दयावान है अतः गरीबों के कष्ट देख नहीं पाया, जो
उनको मुक्त करवाने के लिए सहानूभूति रूप में खुद को प्रस्तुत किया है। तब भूमियां
ने गवाह के रूप में सँतरी को प्रस्तुत किया जिससे राजा की शँका मिट गई तथा सभी
निर्दोष लोगों को मुक्त कर दिया गया। किन्तु अब राजा भी भूमियां के जीवन से इतना
प्रभावित हुआ कि उसने भी गुरू नानक देव जी के उपदेशों के प्रचार के लिए एक धर्मशाला
बनवा दी जिसमें प्रतिदिन सतसँग होने लगा। राजा गुरू नानक देव जी का परम भक्त बन गया।
उसके यहाँ संतान न थी, उसके इस दुख को देखते हुए सतसँग में एक दिन विचार हुआ कि राजा
के लिए गुरू चरणों में सँतान की कामना की जाए। अतः समस्त सँगत ने एक दिन मिलकर प्रभु
चरणों में प्रार्थना की कि हे भगवान ! आप कृपा करके, हमारे राजा के यहाँ एक पुत्र
का दान देकर उसे कृतार्थ करें। प्रार्थना स्वीकार हुई परन्तु राजा के यहाँ पुत्र के
स्थान पर पुत्री ने जन्म लिया। राजा ने नवजात शिशु को लड़को की तरह पालनपोषण करना
प्रारम्भ कर दिया क्योंकि उसका विश्वास था कि सँगत ने मेरे लिए पुत्र की कामना की
थी। अतः यह बालक पुत्र ही है पुत्री नहीं। समय व्यतीत होने लगा, बालक के युवा होने
पर उसका रिश्ता एक लड़की के साथ तय कर दिया गया। जब राजा बारात लेकर अपने समधी के यहाँ
जा रहा था तो रास्ते के जँगल में एक हिरण दिखाई दिया जिसका शिकार करने के लिए राज
कुमार दूल्हे ने जो कि वास्तव में लड़की थी, ने पीछा किया जिस कारण वह बारातियों से
बिछुड़ गया। दुल्हे को भटकते हुए कुछ साधु भजन करते दिखाई दिये। वह उनके पास रास्ता
पूछने पहुँचा तथा शीश झुकाकर प्रणाम किया। साधु ने कहा आओ बेटा बस फिर क्या था !
दुल्हे की काया कलप होकर, वह नारी से नर पुरुष रूप होकर वास्तविक दुल्हा बन गया। जब
बारात का स्वागत हो रहा था तो किसी चुगल खोर ने वधू पक्ष को सूचित किया कि दूल्हा
तो पुरुष नहीं, नारी है। इस पर वधू पक्ष वालों ने दूल्हे की परीक्षा लेने के लिए एक
योजना बनाई उन्होंने कहा हम फेरे होने से पहले दूल्हे को अपने यहाँ स्नान करवाना
चाहते है क्योकि यह हमारी प्रथा है। जब स्नान कराया गया तो वहाँ तो नारी से नर रूप
काया कल्प हो चुका था।