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33. बड़ी संगत, छोटी संगत (कलकत्ता, बँगाल)

श्री गुरू नानक देव जी पूर्व दिशा में आगे बढ़ते-बढ़ते कालीघाट कलकत्ता में जा पहुँचे। यह क्षेत्र उन दिनों घोर बियाबान जँगलों से घिरा हुआ था। बरसात के मौसम में कीचड़ तथा मच्छरों के कारण बिमारियां फैली हुई थी अतः जनजीवन अस्त-व्यस्त था। गरीबी, भुखमरी, विकराल रूप धारण किये हुए थी। गुरुदेव ने वहाँ के नागरिकों की दुर्दशा देखी तो उनका मन भर आया। बस्ती बहुत गँदी होने के कारण लोगों का जीवन पशुओं समान था। बस्तियों में गँदे पानी की निकासी न होने के कारण बदबू, मक्खी, मच्छर इत्यादि कीटाणुओं का साम्राज्य था। मलेरीया, हैज़े के कारण लोग मर रहे थे। निराशा के कारण सभी लोग मन हार चुके थे, अतः धैर्य और पुरुषार्थ छोड़कर भाग रहे थे दूसरी तरफ सम्पन्न, समृद्ध लोग ऐश्वर्य का जीवन जी रहे थे उनको निम्न वर्ग से कोई सरोकार नहीं था, पर उनका उद्देश्य केवल शोषण करना ही था। विचारधारा ऐसी बन चुकी थी कि यह सब पूर्व कर्मो का फल है। अतः भाग्य में जो लिखा है मिलेगा। यह सब देख, सुनकर गुरुदेव ने दीन-दुखियों की सहायता करने के लिए संघर्ष करने की योजना बनाई। गुरुदेव ने सभी वर्गो को विश्वास में लेने के लिए घर-घर जाकर जागृति लाने के लिए उन को यहाँ दिल-हिला देने वाले दृश्य प्रस्तुत किये तथा वहाँ पर जल्दी ही सेवा समिति की स्थापना कर दी। जिन्होंने घर-घर जाकर बिमारों भूखों की सेवा करना अपना उद्देश्य बना लिया। जल्दी ही निष्काम सेवा की लहर सारे कालीघाट तथा निकट के कस्बों, ‘चुटानी’ और ‘गोविन्दपुर’ में भी फैल गई। नित्य प्रति गुरुदेव अपने प्रवचनो से स्थान-स्थान पर जाकर दीन-दुखियों के लिए लोगों को प्रेरणा देते कि सभी मानव जाति एक समान है। सभी को रोटी, कपड़ा, मकान इत्यादि जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की सामग्री उपलब्ध होनी चाहिए। यदि कष्ट में कोई व्यक्ति एक दूसरे के काम नहीं आता तो इस जीवन को धिक्कार है। दीन-दुखियों की सेवा ही वास्तव में सच्ची पूजा है। गुरुदेव के नेतृत्व में गरीबी के विरुद्ध जन अन्दोलन प्रारम्भ हो गया। गुरुदेव ने उस समय एक निर्णय लिया कि बिमारियों का कारण हमारी गँदी बस्तियाँ है। अतः इनको त्यागकर नई आधुनिक बस्तियाँ बनाई जाएँ इस कार्य के लिए कुछ भूमि लेकर, एकत्रित चन्दे से नव निर्माण का कार्य प्रारम्भ कर दिया। देखते ही देखते सभी मजदूर इस कार्य में अपनी सेवाएँ अर्पित करने लगे, जिससे एक सुन्दर बस्ती तैयार हो गई जिसमें गुरुदेव ने पुनर्वास कार्य प्रारम्भ कर दिया। जो मजदूर बीमारी के कारण मर गए थे या अस्वस्थ थे या जिनकी आय के साधन न के बराबर रह गये थे, उनको उस नई बस्ती में प्राथमिकता दी गई। जो पुरानी गंदी बस्ती थी, उसे खाली करा के उन झुग्गी-झोपडीयों को आग लगा दी। इस प्रकार गुरुदेव ने वहाँ पर अपनी क्रांतिकारी विचारधारा से जनजीवन में एक आन्दोलन प्रारम्भ कर दिया। सभी वर्गो के हृदय पर गुरुदेव शासन कर रहे थे। गुरुदेव जहां भी जाते जनसाधारण हाथ जोड़कर आज्ञा पालन करने के लिए तत्पर रहने लगे। इस समय गुरुदेव, मिलजुल कर रहने अथवा बाँट कर खाने के महत्व को जन-जन में सिखा रहे थे। इस कार्य को आगे बढ़ाने के लिए कालीघाट में एक विशाल धर्मशाला बनवाई तथा वहाँ पर सेवा समितिओं को संगत रूप दिया, धीरे-धीरे चुटानी और गोविन्द पुर कस्बे में भी धर्मशाला बनवाकर गुरुदेव ने सतसँग की स्थापना की, जो कि बाद में बड़ी संगत तथा छोटी संगत के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त कर गई। आप जी की प्रेरणा से प्रत्येक वर्ग के लोग नित्य-प्रति जाते। प्रवचन तथा कीर्तन सुनने के पश्चात् समाज सेवा करके पीड़ित लोगों को राहत पहुँचाने जाते, जिससे एक आदर्श समाज की स्थापना हुई। गुरुदेव यहाँ लगभग एक वर्ष रुक कर आगे ढाका के लिए प्रस्थान कर गए।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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