31. कलयुग पण्डा (पुरी, उड़ीसा)
जगन्नाथ मन्दिर का मुख्य पण्डा जिसका नाम कलियुग था, वह गुरू बाबा नानक देव जी की
बहुमुखी प्रतिभा देखकर दुविधा में पड़ गया। एक तरफ उसका अपना सिद्धाँत मूर्ति पूजा
था तथा दूसरी तरफ गुरुदेव द्वारा दर्शाया सत्य मार्ग, एक अकालपुरुष, निराकार ज्योति
की पूजा थी। वह निर्णय नहीं ले पा रहा था कि अब किस मार्ग पर दृढ़ता से पहरा दिया
जाए। यदि वह अपने मार्ग पर चलता है तो इस फोकट मार्ग से सभी कर्म निष्फल चले जाते
हैं और यदि गुरुदेव की आज्ञा से धन सम्पत्ति का त्याग करता है जो कि उसकी जीविका और
वैभव के साधन भी हैं तब भी कठिनाई है। अतः वह अन्त में इस निर्णय पर पहुँचा कि एक
बार फिर से श्री गुरू नानक देव जी की परीक्षा ली जाए तथा जाना जाए कि वह वास्तव में
करनी कथनी के शूरवीर हैं या उन्होंने अकस्मात ही हमें प्रभावित किया है ? ऐसा विचार
करके मुख्य पुजारी, पण्डा कलियुग ने एक योजना बना डाली कि जब कभी गुरुदेव एकान्त
में समुद्र तट पर हो और खराब मौसम में जब ज्वार आ रहा हो, उनको भयभीत करने के लिए
उन पर हमला कर दिया जाए जिस से उनके आत्मविश्वास की परीक्षा हो जाएगी कि वह निराकार
प्रभु में कितनी आस्था रखते हैं ? एक दिन समुद्र में ज्वार आने वाला था किन्तु
गुरुदेव, भाई मरदाना सहित समुद्र तट पर अपने खेमे के बाहर विचरण कर रहे थे कि तभी
कुछ अज्ञात भद्दी आकृति वाले लोगों ने दूर से उन पर आग के गोले फैंकते हुए भँयकर
ध्वनियाँ उत्पन्न करनी शुरू कर दी। किन्तु यह आग के गोले गुरुदेव के निकट नहीं
पहुँच पाए। इसके पश्चात् ज्वार के कारण समुद्री तूफान चलने लगा जिससे भीषण वर्षा
होने लगी। भयँकर तूफान, आँधी, मूसलाधर वर्षा, घनघोर बादलों के छा जाने से दिन में
ही रात जैसा अन्धकार छा गया। गुरुदेव ने भाई मरदाना से कहा, भाई जी आप रबाब बजाकर
कीर्तन आरम्भ करें करतार भली करेगा। मरदाना जी कहने लगे, हे ! गुरुदेव तूफान के
कारण यहाँ पर कीर्तन असम्भव है क्योंकि शरीर ही तूफान से उड़ा जा रहा है। तब गुरुदेव
ने कहा, आप हुक्म माने सब ठीक हो जाएगा। जैसे ही मरदाना जी ने रबाब थामी तूफान थमने
लगा कीर्तन प्रारम्भ होने पर सब शान्त हो गया तथा फिर से उजाला हो गया। आप जी
कीर्तन करने लगे:
एकु अचारु रंगु इकु रूपु ।। पउण पाणी अगनी असरूपु ।।
एको भवरु भवै तिहु लोइ ।। एको बूझै सूझै पति होइ ।।
राग रामकली, अंग 930
अर्थ: हे पांडे उस गोपाल का नाम अपने मन की पटटी के ऊपर लिख, जो
एक आप ही हर स्थान पर व्यापक हो के जगत की यह सारी कार चला रहा है, जो एक आप ही
संसार का सारा रूप रंग प्रकट करने वाला है और जगत में तत्व, पानी, आग, उसके अपने ही
स्वरूप हैं, इस गोपाल की जोत ही सारे जगत में पसर रही है। तभी चट्टानों के पीछे से
कलियुग पण्डा प्रकट हुआ। उसने गुरुदेव को शीश झुकाकर नमस्कार किया तथा रत्नों से भरा
एक थाल भेंट में आगे धर दिया और कहने लगा मेरी यह तुच्छ सी भेंट आप स्वीकार करें।
गुरुदेव ने रत्नों को देखकर कहा, पण्डा जी यह धन पदार्थ हमारे किसी काम के नहीं है।
हम तो त्यागी साधु हैं हमारा एक मात्र लक्ष्य एक प्रभु का नाम जपना एवँ जपवाना है।
अतः हम इसलिए कर्मकाण्ड़ों का खण्डन करते हैं क्योंकि इन क्रियाओं से प्राप्ति न
होकर व्यक्ति व्यर्थ में अमूल्य समय नष्ट करता है। अतः उन्होंने बाणी उच्चारण की:
मोती त मंदर ऊसरहि रतनी त होहि जड़ाउ ।।
कसतूरि कुंगू अगरि चन्दनि लीपि आवै चाउ ।।
मतु देखि भूला वीसरै तेरा चिति न आवै नाउ ।।
हरि बिनु जीउ जलि बलि जाउ !
मैं अपणा गुर पूछि देखिआ अवरु नाही थाउ ।। रहाउ 11
सिरी राग, अंग 14
अर्थ: अगर मुझे महल आदि मिल जाये, जिसमें रतन आदि जड़े हों और
उसमें कस्तुर, अगर सुगंधि और चन्दन से लिपाई की गई हो, लेकिन यह सब बेकार हैं,
क्योंकि इन्हें देखकर कहीं मैं अपने परमात्मा को न भूल जांऊ, क्योंकि हरि के बिना
आत्मा सुक जाती है, जल जाती है। अतः मुझे यह सब नहीं चाहिए। कलियुग पण्डे ने क्षमा
मांगी और कहा, मैं आपके दर्शाये मार्ग पर चलूँगा तथा अपनी सम्पूर्ण सम्पति आपके
सिद्धांतों के प्रचार-प्रसार पर खर्च कर दूँगा अतः मुझे गुरू दीक्षा दें। मैं आपका
शिष्य होना चाहता हूँ। गुरुदेव जी, कलियुग पण्डे पर अति प्रसन्न हुए और उसे उस
समस्त क्षेत्र का प्रचारक नियुक्त कर दिया। कुछ लोगों ने, जो वहाँ के स्थानीय निवासी
थे, कलियुग पण्डे से प्रेरणा पाकर गुरुदेव के समक्ष विनती की कि वहाँ पर खारा पानी
है। यदि मीठे पानी का कोई प्रबन्ध कर दें तो इस क्षेत्र का कल्याण हो जाएगा।
गुरुदेव ने इस याचना पर, एक बावली खोदने का आदेश दिया जहां वह स्वयँ बैठकर कीर्तन
किया करते थे, उस बावली में से मीठा जल निकला जिससे उन लोगों की अभिलाषा पूर्ण हो
गई। वह मीठे जल का स्रोत गुरुदेव की स्मृति में आज भी विद्यमान है। उन्हीं दिनों
भक्त चैतन्य पुरी नगर की यात्रा पर थे। अतः वहाँ पर उनको श्री गुरू नानक देव जी के
दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उन्होंने गुरुदेव से आध्यात्मिक विषयों पर बहुत
विचार-विनिमय किया तथा निराकार उपासना का उपदेश धारण किया। गुरुदेव कुछ मास, पुरी
नगर में ठहरकर, वहाँ से पूर्व दिशा में, बँगाल तथा आसाम की तरफ प्रस्थान कर गए। आप
जी चलते-चलते कलकत्ता पहुँचे।