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29. रथ यात्रा (पुरी नगर, उड़ीसा)

श्री गुरू नानक देव जी कटक से आगे अपने निर्धारित कार्यक्रम के अन्तर्गत ‘पुरी’ में पहुँचे। गुरुदेव के लिए वह मेला उनके अपने सिद्धांतो के प्रचार करने का एक स्वर्ण अवसर था जहां भी मूर्ति पूजा या कर्मकाण्ड रीतियों का प्रचलन होता, गुरुदेव वहां पर ही उनके नियमों के विरुद्ध कुछ ऐसी बातें कर देते जिन्हें देखकर वे पण्डे, पुजारी विवशता के कारण वाद-विवाद के लिए तैयार हो जाते। परन्तु गुरू नानक देव जी का तेजस्वी व्यक्तित्व और उनकी ज्ञान पूर्ण बाणी, से उनकी एक न चलती। जब जगन्नाथ पुरी में गुरुदेव पहुँचे तो उन दिनों जगन्नाथ, कृष्ण जी की रथ यात्रा निकालने का पर्व निकट था। अतः भारी संख्या में श्रद्धालू मेले में सम्मिलित होने पहुँच रहे थे। गुरुदेव ने समुद्र तट पर एक रमणीक स्थल चुनकर अपना खेमा लगाया तथा पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए कीर्तन प्रारम्भ कर दिया। जल्दी ही आप के आसपास भारी भीड़ इकट्ठी हो गई। तब गुरुदेव ने शब्द वाणी का गायण प्रारम्भ कर दिया:

दूजी माइआ जगत चित वासु ।। काम क्रोध अहंकार बिनासु ।।
दूजा कउणु, कहा नही कोई ।।
सभ महि एकु निरंजनु सोई ।। राग गउड़ी, अंग 223

जगत नाथ मन्दिर : मधुर संगीत सुनकर बहुत से भक्तजन आपके आसपास बैठ गए। कीर्तन समाप्त होने पर आपने श्रद्धालुओं को सम्बोधित होकर कहा कि एक मात्र जगन्नाथ स्वयँ प्रभु-परमेश्वर है जो कि सर्वव्यापक है। अतः यह एक नन्हीं सी मूर्ति कैसे जगन्नाथ हो सकती है। जिसे हम में से ही किसी कारीगर ने बनाया है। यदि हम इस नन्ही सी मूर्ति को जगन्नाथ मान लेते है तो इसका निर्माता कारीगर, वह तो इस सृष्टि से उपर कोई और प्रभु हो गया। लोगों ने परम्परा के विरुद्ध गुरुदेव के प्रवचन में सत्य पर आधारित तर्क संगत सुने, तो बहुत प्रभावित हुए। परन्तु स्थानीय वातावरण के विपरीत विचार, सभी को असहनीय महसूस हो रहे थे। अतः वह आपस में कानाफूसी करने लगे। यह बात जँगल की आग की तरह फैल गई कि एक साधारण मनुष्य पँजाब से आया है जो अपने साथियों के साथ मिलकर कीर्तन करता है तथा अपने प्रवचनों में मूर्ति पूजा का खण्डन कर रहा है तथा कह रहा है कि यह अधूरी मूर्ति जो कि कृष्ण जी की बताई जाती है, जगन्नाथ नहीं हो सकती क्योंकि जगन्नाथ अर्थात समस्त जगत का स्वामी वह सर्व व्यापक प्रभु स्वयँ है। ईश्वर का निर्माण पत्थर या मिट्टी से नहीं किया जा सकता है। परमात्मा कण-कण में निवास करते हैं। वही सब मनुष्यों के इष्टदेव हैं और उन्हीं का स्मरण आत्मशक्ति के लिए आवश्यक है। इस घटना की सूचना स्थानीय शासक, राजा प्रताप रूद्रपुरी को भी मिली वह बहुत विद्वान मनुष्य था। अतः उसने निर्णय लिया की गुरुदेव जी से प्रत्यक्ष वाद-विवाद हो तो सत्य जाना जाए। वह स्वयँ गुरुदेव के दर्शनों की अभिलाषा लेकर जगन्नाथ के मन्दिर में पहुँचा। उसने गुरुदेव को सँध्या की आरती में सम्मिलित होने का निमन्त्रण भेजा। जिसको प्राप्त करके ठीक आरती के समय गुरुदेव मन्दिर के प्राँगण में पहुँचे किन्तु आरती में सम्मिलित नहीं हुए। वे अपने शिष्यों के साथ वहीं बैठे मूक दर्शक बने रहे। आरती समाप्त होते ही वहाँ के पुजारियों तथा प्रशासनिक अधिकारियों ने गुरुदेव को घेर लिया। तथा कहा: आप आरती में सम्मिलित क्यों नहीं हुए ? इसके उत्तर में गुरुदेव ने कहा: मैं तो अपने विशाल जगन्नाथ जी की आरती में प्रत्येक क्षण सम्मिलित रहता हूँ। उसकी आरती कभी समाप्त नहीं होती तथा वह निरंन्तर चलती ही रहती है। यह सुनकर पुजारी पूछने लगे: वह आरती कहाँ हो रही है हमें भी दिखाएँ। इसके उत्तर में गुरुदेव जी ने कहा: गगन रूपी थाल में सूर्य और चद्रमाँ रूपी दीपक जल रहे हैं। गगन के सितारे उस थाल में जड़े हुए मोती हैं। मलयानिल धूप बती का कार्य कर रहा है और पवन विराट-स्वरूप भगवान के सिर पर चँवर झुला रहा है। इस सँदर्भ में आप जी ने बाणी उच्चारण प्रारम्भ कर दी:

गगन मै थालु रविचंदु दीपक बने तारिका मण्डल जनक मोती ।।
धूप मलआनलो पवणु चवरु करे सगल बनराइ फूलन्त जोती ।।
कैसी आरती होइ भव खण्डना तेरी आरती ।।
अनहता सबद वाजंत भेरी।। रहाउ ।।
सहस तव नैन नन नैन है तोहि कउ सहस मूरति नना एक तोही ॥
सहस पद बिमल नन एक पद गंध बिनु सहस तव गंध इव चलत मोही ॥२॥
सभ महि जोति जोति है सोइ ॥
तिस कै चानणि सभ महि चानणु होइ ॥
गुर साखी जोति परगटु होइ ॥
जो तिसु भावै सु आरती होइ॥३॥
हरि चरण कमल मकरंद लोभित मनो अनदिनो मोहि आही पिआसा ॥
क्रिपा जलु देहि नानक सारिंग कउ होइ जा ते तेरै नामि वासा ॥४॥
राग धनासरी, अंग 663

पूरी वनस्पति भगवान के अर्पित फूल हैं। उसकी आरती तो स्वयँ प्रकृति ही कर रही है ! अनहद शंख नाद किया जा रहा है। इस विराट् रूप, में आपके हजारों नयन है। परन्तु निर्गुण स्वरूप में आपकी एक भी मूर्ति नहीं है। विराट स्वरूप भगवान के हजारों पवित्र चरण है परन्तु निर्गुण पारब्रह्म का एक भी पैर नहीं है। निर्गुण स्वरूप में हे प्रभु ! आप बिना नाक के हैं परन्तु इस विराट स्वरूप में आपके हजारों नाक है। आपकी यह लीला देखकर, मैं कर्त्तव्य विमूढ़ हो गया हूँ। हे जीव ! सब जीवो में उसी ज्योति-स्वरूप-परमात्मा की ज्योति है और उसी ज्योति के कारण सबको प्रकाश की प्राप्ति होती है। गुरू की कृपा से ही उस ज्योति का अनुभव होता है। जो जीव उस परमात्मा को भाता है उसकी आरती स्वीकार की जाती है। हरि के चरण कमलों का आनन्द-रस प्राप्त करने के लिए मेरा मन तड़पता है और दिन-रात मुझे प्रभु दर्शन की प्यास रहती है। हे प्रभु ! मुझ प्यासे पपीहे को अपनी कृपा की स्वांति बूँद देने का कष्ट करें। इससे मेरे मन में आपके पवित्र नाम-रूपी अमृत का निवास होगा। इस व्याख्या को सुनकर राजा प्रताप रूद्रपुरी बहुत प्रसन्न हुआ। अतः उसने गुरुदेव से दीक्षा की याचना करने का मन बनाया। तब गुरुदेव ने वहाँ हजारो भक्तो के साथ राजा प्रताप रूद्रपुरी को भी दीक्षा देकर कृतार्थ किया। इस राजा ने गुरुदेव की याद में समुद्र तट पर, जहां उन्होंने अपना खेमा लगाया था, एक सुन्दर सी धर्मशाला, सतसँग भवन बनवाया, जिसमें प्रतिदिन निराकार प्रभु की स्तुति होने लगी।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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