28. चैतन्य भारती का उद्धार (कटक,
उड़ीसा)
श्री गुरू नानक देव जी लम्बी यात्रा करते हुए उड़ीसा प्राँत के कटक नगर में पहुँचे।
कटक का तत्कालीन राजा, देवी का उपासक था। जब उसने गुरुदेव के दर्शन करके, उनसे
निराकार प्रभु की उपासना के प्रवचन सुने तो उसने देवी, देवताओं की आराधना त्याग दी।
यह देखकर उसका गुरू ‘चैतन्य भारती’ बहुत ही क्रोध में आया। उसने अपनी तान्त्रिक
शक्तियों से गुरुदेव को मार देने की धमकी दी। किन्तु गुरुदेव शान्त हृदय से स्थिर
होकर बैठे रहे। दो-तीन दिन तक उसने अपनी मँत्र शक्ति चलाई किन्तु उसकी एक न चली।
गुरू बाबा जी के कीर्तन की मधुर ध्वनि की गूँज जब उसके कानों में पहुँचती तो उसका
क्रोध धीमा हो जाता एवँ उसकी तान्त्रिक शक्तियाँ इन आध्यात्मिक ध्वनियों के सम्मुख
नाकारा होकर रह जातीं। अन्त में चैतन्य को अपनी भूल का एहसास हुआ। अतः प्रायश्चित
में उसने एक छोटा सा पौधा गुरुदेव की सेवा में भेंट रूप में प्रस्तुत किया। यह पौधा
इस बात का प्रतीक था कि वे मित्रता की नीव रखते हैं, क्योंकि प्रकृति की समस्त
शक्तियाँ आप के आधीन हो चुकी हैं। अतः वह शरणागत हुआ। उसका पौधा वहीं पृथ्वी में
गाड़ दिया गया जो वृक्ष के रूप में विद्यमान है।