27. ‘डाकुओं का उद्धार’ (रास्ते में,
केन्दुझरगढ़, उड़ीसा)
श्री गुरू नानक देव जी ने अपना लक्ष्य हिन्दू तीर्थ ‘पुरी’ को बनाकर आगे की यात्रा
प्रारम्भ की हुई थी। उनका मुख्य उद्देश्य था कि आषाढ़ माह में जगननाथ का रथयात्रा
पर्व पर होने वाले मेले में पहुँचकर कोटि-कोटि जन समूह से सीधा सम्पर्क करना एवँ
उन्हें मानवता का संदेश देकर, एक ईश्वर का बोध कराना, जो कि सर्व-व्यापक है। अतः वे
दूर्गम तथा विषम पठारी क्षेत्रों से होते हुए चल रहे थे। चलते-चलते एक स्थान पर उनका
सामना डाकुओं से हो गया। डाकुओं के मुखिया ने गुरुदेव के मुखमण्डल के तेज को देखकर
अनुमान लगाया कि यह कोई अमीर व्यापारी है परन्तु साधु वेष धारण करके उन लोगों से
बचकर निकलना चाहता है। अतः उन्होंने गुरुदेव को कहा: कि जो कुछ है दे दो वरना जान
से मार डालने की धमकी दी। किन्तु इसपर गुरुदेव मुस्कराने लगे तथा कहा: ठीक है, भाई
लोगों हम मरने के लिए तैयार हैं। किन्तु हमारी अन्तिम इच्छा है कि हमारे शवों का
दाह-संस्कार कर देना। जिससे शवों का अपमान न हो। अतः आप पहले हमें को जलाने के लिए
आग का प्रबन्ध कर लें। इस अनोखी माँग को सुनकर पहले तो डाकू चकित हुए, परन्तु
उन्होंने सोचा यह कोई ऐसी माँग नहीं जो कि मरने वालों की पूरी न की जा सके। इसीलिए
दो डाकू आग के लिए दूर से दिखाई देने वाले धूएँ की ओर चल पड़े। वहाँ पर पहुँचकर देखा
कि गाँव के लोग एक शव की अंत्योष्टि क्रिया कर रहे थे तथा सभी लोग मृत प्राणी के
दुष्कर्मो की निन्दा कर रहे थे कि यदि उस व्यक्ति ने अपराधी जीवन न जीया होता तो आज
उसे यूँ इस प्रकार मृत्यु दण्ड न मिला होता। वह डाकू वहाँ से वापस आ कर गुरुदेव के
चरणों में गिर पड़े तथा कहने लगे: हजूर हमें क्षमा करें। आप महापुरुष हैं। यदि हमने
आपकी हत्या कर दी तो लोक-परलोक में हमारी निन्दा होगी और धर्मराज के न्यायालय में
जो दण्ड मिलेगा सो अलग। अतः आप हमारी प्रार्थना स्वीकार करके हमें अपनी मर्यादा
अनुसार शिष्य बना लें क्योंकि हमने सदा घोर पाप किए हैं। सत्य गुरू जी हम प्रतिज्ञा
करते हैं कि हम आगामी जीवन सदाचार सहित व्यतीत करेंगे। अतः हमारे पापों का नाश करो।
गुरुदेव ने कृपा दृष्टि की, तथा कहा: जब तुम लोग इस व्यवसाय को पूर्ण रूप से त्याग
दोगे तो प्रभु तुम्हारी क्षमा याचना स्वीकार करेंगे। अब तुम कृषि कार्य करो और धन
सम्पति गरीबों में वितरण कर दो। दीन-दुखीयों की सेवा में समय लगाओ। इस प्रकार गुरू
नानक देव जी ने डाकुओं के एक समूह को प्रभु भक्ति के नाम रंग में रंग दिया, जिससे
डाकुओं के जीवन में क्रांति आ गई।