18. त्रवेणी घाट, चतुर दास पण्डित (प्रयाग, इल्लाहाबाद)
गुरु नानक देव जी जब प्रयाग, इलाहबाद पहुँचे, तब उन दिनों कार्तिक पूर्णमा का स्नान
उत्सव था। अतः अपार जनसमूह त्रवेणी घाट पर विशेष स्नान के महत्व का लाभ उठाने हेतु
एकत्र हुए थे। गुरू नानक देव जी ने एक रमणीक स्थल पर आसन जमाकर मरदाना जी को कीर्तन
करने को कहा। बस फिर क्या था ! अधिकांश भीड़ गुरुदेव के चरणो में उपस्थित होकर प्रभु
भजन का आनन्द लेने लगीः
लबु कुत्ता, कूड़ु चूहड़ा ठगि खाध मुरदारु,
पर निंदा पर मलु मुखि सुधी अगनि क्रोधु चंडालु ।।
रसकस आपु सलाहणा ए करम मेरे करतार,
बाबा बोलीऐ पति होए ।। सिरी राग, अंग 15
अर्थः हमारी लालच की प्रवृति कुत्ते की आदत के समान है। झूठ
बोलना नीच भँगी जैसा कर्म है दूसरों को धोखा देकर जीविका कमाना, मुर्दा खाने के
बराबर है। दूसरों की निंदा करनी उसका मल सेवन करने के समान है। बिना कारण क्रोध,
चँडालों की आदत के बराबर है। इन रसों-कसों में पड़कर हम स्वयं की प्रशंसा करते हैं
किन्तु हमें वही बात बोलनी या कहनी चाहिए जिससे समाज में हमारी इज्जत बढ़े। गुरुदेव
के समक्ष अपार जन समूह के कारण परीस्थिति का अनुमान लगाने कुछ पण्डे लोग आये। उन
में से एक जो कि उन का मुखिया था, बौखला उठा। वह आश्चर्य में सोचने लगा कि यह नया
साधु कौन आया है जो सबको अपनी तरफ आकृष्ट कर रहा है। हमारा तो धन्धा ही चोपट हो रहा
है। हमारे निकट कोई भी नही आता। हमारी जीविका कैसे चलेगी। सभी लोग कुछ सोच-विचार
करके कोई युक्ति सोचने लगे जिससे गुरुदेव की तरफ से जनसमूह को अपनी ओर आकृष्ट किया
जा सके। तब पण्डित चतुर दास, गुरुदेव के निकट आकर जनता से कहने लगाः कि सभी भक्त जन
ध्यान से देखें कि यह व्यक्ति अधुरा साधु है अतः इनके कीर्तन का कोई लाभ होने वाला
नहीं क्योंकि इन्होंने न तिलक लगाया है न तुलसी माला ही पहनी है, न ही इनके पास
सालग्राम है, तथा न ही चिमटा करमण्डल इत्यादि धारण किया हुआ है। उस समय गुरुदेव ने
उत्तर दियाः पण्डित चतुर दास जी आपने जो साधु के लक्षण बताये है वह वास्तव में केवल
बाहरी वेष-भूषा के चिन्ह मात्र है। इन चिन्हों का स्वाँग रचकर जनसाधारण को धोखा देते
देखे गये हैं। केवल इन चिन्हों के प्रयोग से कोई व्यक्ति श्रेष्ठ नहीं बन जाता जब
तक कि वह प्रभु नाम की कमाई नहीं करता तथा अपना अंतःकरण विकारों से शुद्व नहीं करता। अधिकाशं
लोग उदर पूर्ति के लिए दूसरों पर, निन्दा रूपी कीचड़ फेंकने में व्यस्त रहते हैं
किन्तु वह अपने गिरहवान में झाँककर नहीं देखते कि वह स्वयँ आध्यात्मिक दुनिया में
कहाँ खड़े हैं। इस सत्य कटाक्ष को सुनकर पण्डित चतुरदास जी को अपनी वास्तविक आकृति
दृष्टि गोचर होने लगी। तब गुरुदेव ने भाई मरदाना जी को रबाव बजाने के लिए कहा। भाई
जी बसंत राग की मधुर धुन निकालने लगे जिसको गुरुदेव ने निम्नलिखित पँक्तियों में
कलम बद्ध कियाः
सालग्राम बिप पूजि मनावहु सुक्रितु तुलसी माला ।
राम नामु जपि बेड़ा बांधहु दइया करहु दइआला ।।1।।
काहे कलरा सिंचहु जनमु गवावहु।
काची ढहगि दिवाल काहे गचु लावहु।। बसंतु हिडोल महला 1, अंग 1170
अर्थात मैं केवल राम नाम से ही प्रभु प्राप्ति में विश्वास करता
हूँ। मेरे को दिखावे के चिन्हों की कोई आवश्यकता नहीं। केवल इन चिन्हों को धारण करके
मोक्ष प्राप्ति का स्वपन देखना बँजर भूमि सींचने के समान है या यह कह सकते हैं कि
कच्ची मिट्टी की दीवार से स्थाई भवन नहीं बन सकते। इसी प्रकार बाहरी चिन्ह,
सालग्राम, तुलसी माला, तिलक आदि प्रभु प्राप्ति नहीं करा सकते। तात्पर्य यह है कि
राम नाम को जो व्यक्ति नहीं अराधता उसका उद्धार हो ही नहीं सकता। ठीक उसी प्रकार,
जिस प्रकार कोई मल्लाह अपनी नाव का रस्सा खोले बिना चप्पू चलाता रहे। अर्थात भले ही
वह कई प्रकार के साधुओं वाले स्वाँग रचता रहे। इन प्रवचनो के पश्चात् बहुत से
जिज्ञासु गुरुदेव के चरणों मे विनती करने लगे कि हमें आप इन कर्म-काण्डों से मुक्त
करके कोई सत्य मार्ग दर्शाऐं। उस समय पुनः गुरुदेव ने भाई मरदाना जी को रबाव बजाने
का आदेश दिया तथा शब्द उच्चारण कियाः
तीरथि नावण जाउ तीरथु नामु है।।
तीरथु सबद बीचरु अंतरि गिआनु है ।। धनासरी मः 1 अंग 687
गुरुदेव कहने लगे। हे सत्य पुरुषों ! वास्तव में प्रभु के नाम
की आराधना ही तीर्थो का सच्चा स्नान है तथा महापुरुषों द्वारा दिये गये उपदेशों का
मनन करके उस पर जीवन व्यतीत करना सच्चा ज्ञान है जो कि हमारा कल्याण करने में सहायक
होगा। क्योंकि इन्हीं कार्यो से मन, चित, बुद्धि को एकाग्र करके लक्ष्य की प्राप्ति
के लिए सँयुक्त रूप से कार्य करना ही धिवेणी अथवा सँगम स्नान है।