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17. सुमेरु पर्वत कैलाश ‘तिब्बत’ सिद्ध मण्डली से गोष्ठ

श्री गुरू नानक देव जी, बद्रीनाथ मन्दिर से सुमेरु पर्वत, कैलाश की यात्रा के लिए प्रस्थान कर गये। आपको रास्ते में कुछ अन्य सँन्यासी भी लिपूलेप दर्रे की ओर जाते हुए मिले जो कि मानसरोवर झील के स्नान के लिए तीर्थ यात्रा पर जा रहे थे। लिपूलेप दर्रा पार करने के पश्चात् तिब्बती क्षेत्र में आप टकलाकोट नामक नगर में पहुचे। वहाँ आप जी ने कुछ दिनों के लिए पड़ाव डाला। उन दिनों वहाँ बौद्ध धर्म के अनुयायी रहते थे। वे लोग आप के युक्ति पूर्ण तर्क सँगत विचारों से बहुत प्रभावित हुए। इसलिए निकटता होते देरी नहीं लगी। घानिष्ठता होने पर गुरुदेव ने उनके समक्ष सुमेरु, कैलाश पर्वत पर चढ़ने का अपना विचार रखा। उन्होंने अपने पर्वतारोही विशेषज्ञ दल को गुरुदेव के साथ भेंट करवाई। वे सुमेरु पर्वत पर चढ़ने लगे। इस पर्वत पर प्राचीन काल से ही भारत वर्ष के ऋषि-मुनि तपस्या करने आया करते थे, क्योंकि उस समय वह स्थान सँसार से बिलकुल कटा हुआ था। वहाँ पर पहुँचने के लिए उन दिनों नेपाल-भारत सीमा के साथ-साथ काली नदी के किनारे-किनारे चलते हुए तवाघाट नामक स्थान से होकर जाते थे तथा दूसरा मार्ग बद्रीनाथ होते हुए मानसरोवर जाता था। इसी पर्वतमाला से सिन्धु नदी का उदगम भी होता है। जब गुरुदेव अपने साथियों के साथ वहाँ पहुँचे तो उस पर्वत की विशेष गुफाओं में कुछ तपस्वी मिले जो कि अपने को गुरू गोरख नाथ के शिष्य मानते थे। उनका वहाँ एकाँत वास में तप करने का मुख्य उद्देश्य योग साधना द्वारा रिद्धि-सिद्धि प्राप्त करना होता था अर्थात चमत्कारी शक्तियाँ प्राप्त करके वे साँसारिक लोगों से अपनी मान्यता करवाते थे। वे लोग अपने यहाँ गुरुदेव को देखकर आश्चर्यचकित हुए तथा वे उनसे प्रश्न करने लगे, युवक तुम यहाँ पर किस शक्ति द्वारा पहुँचे हो ? क्योंकि इस दुर्गम स्थान पर जनसाधारण का पहुँच पाना कठिन ही नहीं असम्भव है। इसके उत्तर में गुरुदेव ने कहा, हमारे पास केवल प्रभु नाम का ही एक मात्र सहारा है कोई अन्य साधन तो है ही नहीं। इस उत्तर से योगी बौखला उठे वे सोचने लगे वह युवक उन्हें बना रहा है। रहस्य को जानने के लिए उन्होंने गुरुदेव से एक विचार गोष्ठी का आयोजन किया, क्योंकि वे जानना चाहते थे कि इतनी अल्प आयु में इतनी प्रतिभा, इतना साहस, उन्होंने किस प्रकार प्राप्त किया है। जबकि उन्होंने कई वर्षों की घोर तपस्या करने पर कुछ एक नाम मात्र आत्मिक शक्तियों की प्राप्ति की है। योगिओं की इस मण्डली में लोहारिपा, चरपट, भँगरनाथ, सँधरनाथ, गोपीचन्द, हनीफे इत्यादि प्रमुख्य सदस्य थे।

लोहारिपा योगी ने गुरुदेव पर दूसरा प्रश्न कियाः आपका क्या नाम है ? कौन सी जाति से सम्बन्ध रखते हो ? गुरुदेव कहने लगेः मैंने अपने अस्तित्व को मिटा डाला है, इसलिए अब मेरा नाम शून्य हो गया है तथा मेरी जाति कोई नहीं। क्योंकि मैं वर्ण-भेद को मानता ही नहीं। मेरे लिए समस्त मानव जाति एक सम है। इस पर योगी कहने लगेः ठीक है चलो आप अपने विषय में कुछ नहीं बताना चाहते तो न सही परन्तु यह तो बताओ कि इन दिनों मृत्यु-लोक, सँसार में जनजीवन किस प्रकार चल रहा है ? उत्तर में गुरुदेव कहने लगेः आप अपना कर्त्तव्य भूलकर यहाँ पर्वतों की कन्द्राओं में छिपे बैठे हो जबकि आपको पीड़ित जनसाधारण के उद्धार के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए था। जब आपने मानव समाज से नाता तोड़ ही लिया है तो उनके लिए चिंतित क्यों हो रहे हो ? इस उत्तर से योगी बहुत झेंपे परन्तु फिर से अनुरोध करने लगेः कि कुछ तो बताओ ? इस पर गुरुदेव ने कहाः

कलि काती राजे कासाई धरमु पंख करि उडरिआ ।।
कूड़ु अमावस सचु चंद्रमा दीसै नाही कह चड़िआ ।। राग माझ, अंग 145

अर्थः मृत्यु लोक में इस समय शासक वर्ग तो कसाई का रूप धारण करके अधर्म के कार्यों में सँलग्न है। प्रजा का शोषण हो रहा है। हर स्थान में झूठ का बोल बाला है, सच्च रूपी चन्द्रमाँ कहीं दिखाई नहीं देता। इस पर लोहारिपा योगी ने प्रश्न कियाः फिर आपने हमारी तरह सँन्यास क्यों ले लिया है ? कारण बताओ तथा किस वस्तु की खोज में तुम यहाँ चले आए हो ?

किसु कारणि गृहु तजिओ उदासी ।। किसु कारणि इहु भेखु निवासी ।।
किसु वखर के तुम वणजारे ।। किउ करि साथु लंघावहु पारे ।।
राग रामकली, अंग 939

उत्तर में गुरुदेव कहने लगेः

गुरमुखि खोजत भए उदासी ।। दरसन कै ताई भेख निवासी ।।
साच वखर के हम वणजारे ।। नानक गुरुमुखि उतरसि पारे ।।
राग रामकली, अंग 939

गुरुदेव कहने लगेः मैं तों सत्य का खोजी हूँ। अतः जब प्रभु दर्शन के लिए मन में वैराग्य उत्पन्न हुआ तो विवेक बुद्धि वाले महापुरुषों से विचार विमर्श के लिए चला आया हूँ। वास्तव में मैंने गृहस्थ का त्याग नहीं किया। यह सुनकर चरपट योगी बोलाः कि फिर आपका क्या विचार है, किस विधि से भवसागर से पार उतारा हो सकता है ?  

दुनीआ सागरु दुतरु कहीऐ किउ करि पाईऐ पारो ।।
चरपटु बोलै अउधू नानक देहु सचा बीचारो ।। राग रामकली, अंग 938
इस पर गुरुदेव बोलेः
जैसे जल महि कमलु निरालमु मुरगाई नैसाणे ।।
सुरति सबदि भवसागर तरीऐ नानक नामु वखाणै ।।
रहहि इकांति एको मनि वसिआ आसा माहि निरासो ।।
अगमु अगोचरु देखि दिखाए नानकु ता का दासो ।।
राग रामकली, अंग 938

अर्थः जैसे कमल का फूल पानी में रहते हुए भी निरलेप रहता है। तथा मुरगाबी पक्षी पानी में गोते लगाती हुई भी भीगती नहीं। ठीक इस प्रकार प्राणी को मानव समाज में रहते हुए माया के बन्धनों से ऊपर रहकर भवसागर से पार हो जाना चाहिए। व्यक्ति को अपने हृदय में प्रभु की याद को सदैव रखते हुए, साँसारिक कार्य करते हुए, वैराग्य का जीवन जीना चाहिए। जो इस विधि से भवसागर पार करने का प्रयत्न करता है वही हमारा मित्र है हम उसके सखा हैं। जीवन के इस रहस्य को सुनकर योगी गुरदेव से बोलेः हे युवक ! तुम्हारा गुरू कौन है ? तथा तुम किस सिद्धांतवाद को मानते हो और कब से इस पर आचरण कर रहे हो ? 

कवण मूलु कवण मति वेला ।।
तेरा कवणु गुरू जिस का तू चेला ।। राग रामकली, अंग 942

इस के उत्तर में गुरुदेव कहने लगेः जब से वायुमण्डल की उत्पति हुई है तब से मैं अपने सतगुरू की विचारधारा का अनुयायी हूँ। मैंने शबद को गुरू मानकर धुनि को सुरत में आत्मसात कर लिया है। 

पवन अरंभु सतिगुर मति बोला ।।
सबदु गुरू सुरति धुनि चेला ।। राग रामकली, अंग 943

यह उत्तर सुनकर योगी पुनः गुरुदेव से कौतुहल वश पूछने लगेः आपने सहज जीवन की प्राप्ति, इस अल्प आयु में कैसे की है ? जबकि हम लम्बे समय की हठ साधना करने के पश्चात् भी मन की भटकन से मुक्ति नहीं पा सके। मन की चँचलता पर विजय प्राप्ति की आपकी क्या युक्ति है ? उत्तर में गुरुदेव कहने लगेः

अंतरि सबदु निरंतरि मुद्रा हउमै ममता दूरि करी ।।
कामु क्रोधु अंहकारु निवारै गुरु कै सबदि सु समझ परी ।।
खिंथा भनेली भरिपुरि रहिआ नानक तारै एकु हरी ।।
साचा सहिबु साची नाई परखै गुर की बात खरी ।। 10 ।।
राग रामकली, अंग 939

मैंने अपने मन को गुरू शब्द द्वारा नियन्त्रण में कर लिया है जिससे अब पाँचो विकार मुझे नहीं सताते यदि आप भी ऐसा चाहते हैं तो इस आडम्बरों भरे भेष तथा सामाग्री, मुँद्रा, खिंथा, भनेली इत्यादि त्यागकर गुरू की सीख पर जीवन यापन करना सीख लें। यह उत्तर सुनकर योगी आपस में विचार करने लगे कि युवक नानक देव बहुत प्रतिभावान है, इस को पराजित करना कठिन ही नहीं असम्भव है। यदि किसी युक्ति से इसे छल लिया जाए तो हो सकता है यह हमारा योग मत धारण कर लें। यदि ऐसा हो जाता है तो हमारे मत को इस प्रतिभावान युवक के माध्यम से समस्त विश्व में फैलाने में सहायता मिलेगी। अतः उन्होंने इस कार्य के लिए एक योजना बनाई। जब गुरुदेव के साथी भोजन व्यवस्था करने के लिए गए तभी उन्होंने गुरुदेव से नम्रता पूर्वक अनुरोध किया, हे बाले ! हमारे लिए कष्ट करो। सामने वाले कुण्ड, तलाब से इस कमण्डल में जल ले आओ। जब कमण्डल लेकर गुरुदेव वहाँ पहुँचे तो कुण्ड अमूल्य रत्नों, हीरे, मोती इत्यादि से भरा पड़ा था। परन्तु गुरुदेव वहाँ से खाली कमण्डल लेकर लौट आए। योगी पूछने लगे कि वहाँ पर उन्होंने क्या देखा इस पर गुरुदेव कहने लगे, वहाँ अमूल्य रत्न बिखरे हुए पड़े थे। परन्तु मैं तो पानी लेने गया था, सो खाली कमण्डल ले आया हूँ, वास्तव में यह रत्न मेरे किसी काम के नहीं। यह उत्तर सुनकर योगियों का सारा अभिमान चूर-चूर हो गया, क्योंकि वे तो गुरुदेव को माया जाल में फँसाना चाहते थे। परन्तु गुरुदेव के व्यँग ने उनका पर्दाफाश कर दिया, क्योंकि वह रत्न उनकी एक करामात ही तो थी। कनीफा नाम के एक योगी ने गुरुदेव को अपने मत की श्रेष्टता बताते हुए कहा कि यदि वह योगी बन जाएं, कानों में मुद्रा तथा शरीर पर भस्म लगाकर मृग छाला या लँगोटी धारणकर लें तो उनकी बहुत मान्यता होगी तथा वह परम पद को प्राप्त हो जायेंगे। परन्तु गुरुदेव ने उत्तर दियाः

एको चीरा जानै जोगी ।। कलप माइआ ते भए अरोगी ।।  जन्म साखी

भाव यह कि उन्होंने कानों में छेद करने की अपेक्षा हृदय में छेद किया है जिससे हृदय की लालसा समाप्त हो गई है और वह माया मोह के रोगों से मुक्त हो गई है। इस पर सँघरनाथ योगी कहने लगाः कि प्रभु प्राप्ति के लिए गृहस्थ त्यागकर योगी बनना अनिवार्य है, वह इसलिए कि साँसारिक झँझटों के रहते आराधना हो ही नहीं सकती।

मूल विटम को ग्रिहसथ पठानहु ।।
आस्रम अपर जि साखा जानहु ।।   जन्म साखी

उत्तर में गुरुदेव ने कहाः सँसार की उत्पत्ति का मूल स्रोत तो गृहस्थ है इसके बिना तो किसी के अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इसलिए गृहस्थ ही श्रेष्ठ आश्रम है। जहाँ सभी कर्तव्य निभाते हुए आराधना भी की जा सकती है। फिर वह पूछने लगाः आपने गृहस्थ में रहते माया कैसे त्यागी है तथा काम, क्रोध पर कैसे विजय पाई है ? उत्तर में गुरुदेव ने कहाः

सच जाण कर काल गवाइआ ।। सुरति सबद सिउ तिआगी माइआ ।।
द्रिड़ विचार विकार सभ जीते ।। त्रैगुण मेटे भए अतीते ।।
कहि नानक सुण संधर नाथ ।। आउण जाण हुकम प्रभ साथ ।।
जन्म साखी

गुरुदेव ने कहाः मैंने सत्य की आराधना करके मृत्यु के भय से मुक्ति पाई है तथा सुरत को शबद के सँग लीन करके माया पर विजय पाई है। मन के दृढ़ सँकल्प से विकारों पर विजय पाई है। इन तीन शुभ गुणों के धारण करने मात्र से मन से बैरागी बन गया हूँ परन्तु यह सब उस प्रभु की कृपा दृष्टि से हुआ है। इस सिद्धांत को सनुकर योगी कहने लगेः कि आपने जो कहा है, हमने पहले कभी सुना या पढ़ा नहीं। अतः आपके विचार तो क्रांतिकारी जान पड़ते हैं जिससे समाज में हल-चल उत्पन्न हो सकती है। गुरुदेव कहने लगेः हे योगियों, आप लोग हठ योग त्यागकर, मुझ जैसा सहज जीवन जीना आरम्भ कर दें तो त्रिसूत्री कार्यक्रम से सामाजिक जीवन जी कर हर्ष उल्लास का आनंद सदैव उठा सकते हैं। जिससे आप का तेज प्रताप बढ़ेगा।

सच नाम जप के तुम देखो दामन तै वड दमकै ।।
मानो दत जत कहि नानक घट घट साहब चमकै ।।    जन्म साखी

फिर योगी पूछने लगेः आप सन्तुष्ट हैं, जिससे आप का अन्तःकर्ण शान्त, निर्भीक तथा निशछल सा जान पड़ता है, परन्तु हमें कड़ी साधना के पश्चात् भी ऐसी अवस्था प्राप्त नहीं हुई। आप इस का रहस्य बताएं ?

भाणा मंनण चाख कर सादा ।। त्रिपत भए स्री गुर परसादा ।।
जन्म साखी

गुरुदेव ने उत्तर दियाः मैं प्रभु के प्रत्येक कार्य को प्रसन्नता पूर्वक स्वीकार करता हूँ तथा कभी भी उसके कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करता। इसलिए मैं सदैव ही हर्ष-उल्लास में दिखाई देता हूँ। परन्तु यह अवस्था मुझे शब्द गुरू की कृपा से प्राप्त हुई है। यह ज्ञात होते ही सभी योगियों ने अपनी हठधर्मी त्यागकर पराजय स्वीकार कर ली और कहा नानक जी आपका मार्ग ही समस्त मानव कल्याण के लिए हितकारी है। अतः हम भी आपकी प्रेरणा से प्रेरित हो गए हैं। इस पर गुरुदेव ने उनको सत्य मार्ग दृढ़ करवाकर, स्वयँ वापस टकलाकोट पहुँच गये।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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