16. स्थानीय विद्वानों से गोष्ठी (बनारस,
उत्तर प्रदेश)
इस कार्य के लिए गुरुदेव ने वहाँ एक धर्मशाला बनवाई एवँ सतसँगत की स्थापना की। एक
दिन कुछ विभिन्न मतावलम्बी लोग एकत्र होने लगे कोई कहता था ग्रँथ पढ़ो, कोई कहते थे
गृहस्थ त्यागकर, वनों मे तप करो। कोई कहता था तीर्थो का भ्रमण करो, कोई मूर्ति पूजा
मे विश्वास करता था तो कोई निराकार प्रभु में विश्वास करता था तथा कोई कर्मकाण्डो
में विश्वास करते थे इत्यादि। किन्तु उस प्रभु को कौन सा मार्ग तथा कर्म भाता है
जिससे वह हम पर प्रसन्न हो तथा हमें उस की निकटता प्राप्त हो सके ? गुरू जी ने
उत्तर दिया।
अवर न अउखधु तंतु न मंता।।
हरि हरि सिमरणु किलिविख हंता।। आसा महला 1, पृष्ठ 416
अर्थः प्रभु का सम्बन्ध मन से है शरीर से नहीं, शरीर तो नाशवान
है अतः आध्यात्मिक दुनियाँ में इसका महत्व गौण है। हम जो भी धार्मिक कार्य करें उसमें
मन-चित का सम्मलित होना आवश्यक है। अतः हमें उस निराकार प्रभु अर्थात रोम-रोम में
बसे राम को सुरति सुमिरन से ही आराधना चाहिए। इसके लिए किसी कर्म काण्ड या आडम्बर
रचने की कोई आवश्यकता नहीं। यह सब कार्य हमें गृहस्थ आश्रम में रहकर, अपने
कर्त्तव्य पालन करते हुए नित्य प्रति करना चाहिए। यहीं वास्तविक धर्म है जिसके
अन्तर्गत प्रभु प्राप्ति सम्भव है। बनारस नगर सँतो, महापुरुषों के लिए भी प्रसिद्ध
था। वहाँ पर समय-समय पर भक्तजन भक्ति का प्रचार-प्रसार करते चले आते थे। जिनमें
मुख्य रामानन्द जी, परमानन्द जी, कबीर जी, तथा रविदास जी इत्यादि हुए है, अतः इन
महापुरुषों के यहाँ पर अपने-अपने आश्रम थे जो कि समय अनुसार उन के अनुयायी चला रहे
थे तथा इन महापुरुषों के परलोक गमन के पश्चात् उनकी बाणी को माध्यम बनाकर अपने-अपने
पँथ चला रहे थे। गुरू नानक देव जी की विचारधारा में समानता देखकर क्रमशः सभी आपको
मिलने आये, विचारों के आदान-प्रदान से सभी को सन्तुष्टि मिली जिस कारण परस्पर निकटता
बढ़ती गई अतः सभी वर्ग के लोग गुरुदेव के सतसँग मे सम्मलित होने लगे। इस प्रकार
गुरुदेव जहाँ अपनी वाणी, कीर्तन द्वारा उनको प्रतिदिन सुनाते, वहाँ उनसे भी, कबीर,
रविरास, रामानन्द, परमानन्द जी की प्रमुख रचनाएँ सुनते। उनमें जो आध्यात्मिक कसौटी
पर खरी उतरती, गुरुदेव उन रचनाओं को अपनी पोथी जो कि निर्माण अधीन थी, में उतार लेते
थे।