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13. गोरख मता / नानक मता’ (नैनीताल का तराई क्षेत्र, उत्तर प्रदेश)

वहाँ से गुरुदेव घने पहाड़ी जँगलो से होते हुए जिला नैनीताल के तराई वाले क्षेत्र में गोरख मता नामक स्थान पर पहुँचे। वहाँ दूर-दूर छोटे-छोटे गाँव थे। यह क्षेत्र विरान न होकर कृषि आधरित क्षेत्र था जिस कारण योगियों की उदर पूर्ति के लिए उन्हें भिक्षा सहज मिल जाती थी। यदि कोई किसान भिक्षा में अनाज, मठ को न भेजता तो उसको योगी तप के बल से श्राप देने की धमकी देते थे। अतः लोग स्वयँ श्राप के भय से सभी प्रकार की खाद्य सामग्री समय-समय पर आवश्यकता अनुसार उन्हें पहुँचाते रहते थे। वहाँ पहुँचकर गुरुदेव ने एक सूखे पीपल के पेड़ के नीचे अपना आसन जमाया तथा भाई मरदाना जी को कीर्तन करने का आदेश दिया। जब सरल भाषा में मधुर संगीत के साथ लोगों ने प्रभु स्तुति सुनी तो बहुत प्रभावित हुए। वहाँ के लोग, जो कि सत्य की खोज में योगियों के चक्र में उलझे हुए थे, गुरुदेव के पास वाणी श्रवण करने हेतु एकत्र होने लगे। उस समय गुरुदेव ने जन समूह को उपदेश दिया कि व्यक्ति को गृहस्थ में रहकर अपने सभी कर्तव्य निभाते हुए, प्रभु भजन भी करते रहना चाहिए, वास्तविक में वही सन्यास है। घर त्यागकर या कोई विशेष वेशभूषा धारण करने से कोई व्यक्ति महान नहीं हो जाता। महान वही है जो अपनी जीविका स्वयँ कमाए तथा परमार्थ के लिए दीन दुखियों की सहायता करता रहे। जो व्यक्ति ऐसा न करके दूसरो के धन पर जीवन निर्वाह करता है तथा त्यागी होंने का ढोंग रचता है। वह प्रभु प्राप्ति कर ही नहीं सकता। क्योंकि वास्तविक त्याग मन का है, शरीर का नहीं, शरीर को बिना कारण कष्ट देने से आत्मा शुद्ध नहीं होती, तथा यह कार्य स्वयँ को धोखा देना है। जब यह विचार जनसाधारण ने सुने तो उनको योगी, ढौंगी तथा कपटी दिखाई देने लगे जो कि उनके माल से ऐश्वर्य पूर्ण जीवन जी रहे थे एवँ बिना परीश्रम के अपने आपको महान दिखाकर लोगों को वरदान व श्राप से भयभीत कर रहे थे।

तब क्या था। कुछ व्यक्तियों ने योगियों की उनके यहाँ जाकर आलोचना कर दी कि वे लोग स्वयँ ही पथभ्रष्ट हैं, दूसरों का क्या कल्याण करेंगे ? यह सब जानकर योगी बहुत क्रोधित हुए कि ऐसा कौन है जो उनके विचारों का खण्डन कर रहा है तथा जनता को विपरीत शिक्षा दे रहा है। यदि वह ऐसा करने में सफल हो गया तो उनकी जीविका का क्या होगा ? उन्हें कौन पूछेगा ? तभी उनके पास एक योगी तपोवन नामक स्थल से आ पहुँचा जिसने उनको सब वार्ता कह सुनाई जो कि गुरू नानक जी के वहाँ पर विचार-विनिमय के समय घटित हुई थी कि नानक नाम के एक ऋषि हैं जो कि अपने शिष्य मरदाने के साथ संगीत में प्रभु स्तुति करते हैं। तो रीठे जैसा कड़वा फल भी मीठा हो जाता है। वह गृहस्थ आश्रम को बहुत महानता देते हैं तथा इसी आश्रम में तीन सूत्री कार्यक्रम के अर्न्तगत मनुष्य का कल्याण बताते हैं 1 . किरत करो यानी परीश्रम करो 2. वण्ड के छको यानि बाँट कर खाओ 3. नाम जपो यानि प्रभु चिन्तन करो। योगी लोग– यदि ऐसा है तो हम अभी इसी समय उस की परीक्षा लेंगे कि वह बाँटकर कैसे खाता है ? अतः वे लोग विचार के लिए गुरुदेव के पास उपस्थित हो गये। तो क्या देखते हैं कि कई वर्षो से सूखा पीपल का वृक्ष हरा होने की स्थिति में आ गया था तथा उस पर कोमल पत्तियां निकली हुई दिखाई देने लगी थीं। गुरुदेव के समक्ष होते ही उन्होंने आदेश-आदेश कहा तथा एक तिल का बीज भेंट में दिया। यह देखते ही गुरुदेव ने मरदाना जी को तुरन्त उस तिल को घोट कर सभी अतिथियों को पिला देने के लिए कहा। मरदाना जी ने गाँव वालो की सहयता से उसे घोट कर सभी योगियों में बाँट दिया। इस प्रकार योगियों ने अपनी पहली चाल विफल होती देखी। वहाँ की ग्राम निवासी स्त्रियों ने गुरुदेव के समक्ष भेंट में जो रसद रखी थी उसमें आटा, शक्कर तथा घी इत्यादि था। गाँव वालो की सहायता से मरदाना जी ने घी में आटा भूनकर तथा शक्कर पानी मिलाकर कड़ाह प्रसाद यानि हलवा तैयार कर लिया।

योगियों ने गुरुदेव से वाद-विवाद करना आरंभ कर दियाः कि वह मानव समाज में श्रेष्ठ हैं क्योंकि वह जती-सती रहते हैं। जती-सती होना ही श्रेष्ठ होने की निशानी है। तब गुरुदेव ने उत्तर दियाः भँगरनाथ यदि तेरी माता गृहस्थी न होती तो तेरा जन्म कहाँ से होता ? तुम्हारे अनुसार यदि सभी लोग गृहस्थ त्यागकर सँन्यासी बन जाएँ तो सँसार की उत्पत्ति कैसे होगी ? यदि तुम लोगों को नारी जाति से इतनी घृणा है तो उन माताओं बहनों के हाथों से बने भोजन को क्यों खाते हो तथा उन ही गृहस्थियों के यहाँ जाकर भिक्षा क्यों माँगते हो ? इन बातो का उत्तर योगियों के पास तो था नहीं, इसलिए वह शांत हो गये। तथा गुरुदेव से कहने लगेः आप ही बताएँ कि श्रेष्ठ कौन है ? तब गुरुदेव ने उत्तर दियाः कि श्रेष्ठ वहीं है जो अपने को प्रभु कृपा के पात्र बनाने के लिए किसी प्रकार का ढोंग नहीं रचता। वास्तविक योग तो मन का है। केवल योगी होने के चिन्हों से आध्यात्मिक प्राप्ति हो ही नहीं सकती। जैसे कि आप लोगों ने कानों में बड़ी-बड़ी मुन्द्रा पहनी है, शरीर पर गोदड़ी तथा हाथ में डण्डा, एक बांस, शरीर पर भस्म, राख मल ली है। सिर मुँडवा लिया है अथवा जटा-जूट धारण कर लिया है। यह सभी प्रकार के चिन्ह किसी रूप में भी प्रभु प्राप्ति के लिए सहायक नहीं। अतः शारीरिक दिखावे से जनता को तो भ्रम में डाला जा सकता है, प्रभु को नहीं। वास्तविक योगी वहीं व्यक्ति है जो भले ही गृहस्थ आश्रम में जीवन निर्वाह करता हो। परन्तु माया से निर्लेप हो। ठीक उसी प्रकार जैसे कमल का फूल जल में रहते हुए भी जल के स्पर्श से सदैव मुक्त रहता है। या मुर्गावी पानी में गोते तो लगाती है किन्तु भीगती नहीं।

जोगु न खिंथा, जोगु न डंडै जोगु न भसम चड़ाईऐ ।।
जोगु न मुंदी मूंडि मुडाइऐ जोगु न सिंघी वाईऐ ।।
अंजन माहि निरंजनि रहीऐ जोग जुगति इव पाईऐ ।। राग सूही, पृष्ठ 730

गुरदेव जी कहने लगेः भले ही आप शमशान घाट में आसन जमाएँ, भले ही दूर दराज प्रदेशो में भ्रमण करें या तीर्थो पर जाकर हठ साधना के लिए नशों का सेवन करें, बात तो बनेगी नहीं जब तक कि राम नाम की कमाई हृदय से नहीं की जाती। यह प्रवचन सुन कर, उन योगियों को अपनी गल्तियाँ स्पष्ट दिखाई देने लगी तथा वे जनता के सामने फीके पड़ने लगे। उस समय एक योगी ने गुरुदेव से विनती कीः हे गुरुदेव ! आप हम पर भी कृपा दृष्टि करें एवँ हमें भी कोई युक्ति बताएं जिससे हमारा भी कल्याण हो। योगियों की प्रार्थना पर गुरुदेव प्रसन्न हुए एवँ उपदेश दियाः सर्वप्रथम, किसी पूर्ण पुरुष के मिलाप में ही मन में बसी शँकाओं का समाधान होता है। उन्हीं के उपदेशों से मन की भटकना समाप्त होती है। जिससे अन्तःकरण में अमृत नाम उत्पन्न होता है, फिर किसी बाहरी नशे की कोई आवश्यकता नहीं होती। व्यक्ति की सहज ही समाधि लगती है अर्थात् मन एकग्र हो जाता है तथा हृदय रूपी घर में परीक्षा होती है। जीवित रहते हुए भी इच्छा विहीन, त्यागी, अहँ-विहीन, शून्य जीवन जीना ही वास्तविक योग है, जिससे बिना बाहरी साजों के संगीत तुम्हारे अन्तःकरण में सुनाई देगा, तभी निर्भय पदवी प्राप्त होगी।

जोगु न बाहरि मड़ी मसाणी जोगु न ताड़ी लाईऐ ।।
जोगु न देसि दिसंतरि भविऐ जोगु न तीरथि नाईऐ ।।
सतिगुरु भेटै ता सहसा तूटै धावतु वरजि रहाईऐ ।।
निझरु झरै सहज धुनि लागै घर ही परचा पाईऐ ।।
नानक जीवतिआ मरि रहीऐ ऐसा जोगु कमाईऐ ।।  राग सूही, पृष्ठ 730

योगियों ने गुरुदेव की बताई युक्ति को समझा तथा उस पर मनन किया परन्तु ‘भूखे भजन न होत गोपाला’ वाली स्थिति हो रही थी। योगियों ने भोजन की इच्छा व्यक्त की किन्तु वह मन ही मन सोच रहे थे कि वहाँ पर नानक जी उनका अतिथि सत्कार किस प्रकार करेंगे। क्योंकि वहाँ तो कन्द मूल-फल इत्यादि भी दिखाई नहीं दे रहे थे जिससे भूख मिटाई जा सके। उस समय गुरुदेव ने मरदाना जी से कहा, आप ने जो कढ़ाह प्रसाद तैयार किया है, उसे लोगों में परोस कर इन की सेवा करे। भाई मरदाना जी ने गाँव वालों की सहायता से तैयार किया गया हलवा, कड़ाह प्रसाद पत्तों पर परोसकर, सभी योगियों को सेवन कराया। जिसको चखते ही वे गदगद हो उठे क्योंकि ऐसा स्वादिष्ट व्यँजन उन्हें पहले कभी नहीं मिला था। जब कड़ाह प्रसाद छककर सभी सन्तुष्ट हो गये। तब योगियों ने मिलकर एक निर्णय लिया कि उनको नानक जी से ब्रह्म ज्ञान प्राप्त हुआ है। अतः उस स्थान का नाम गोरख मते से बदल कर नानक मता कर दिया जाए।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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