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12. ‘तपोवन’ (नैनीताल घाटी, उत्तर प्रदेश)

जब आप पर्वतीय क्षेत्र से नीचे उतरकर मैदानो की ओर आ रहे थे, तो रास्ते में नैनीताल जिले की एक रमणीक घाटी में सिद्धि प्राप्त योगियों की मण्डली का स्थान तपोवन पड़ता था। वहाँ पर वे लोग अपनी-अपनी धूनी लगाकर आश्रम बनाकर अपने इष्ट की, हठ योग आसनों द्वारा आराधना किया करते थे। परन्तु कुछ एक ध्यान एकाग्र न हो पाने के कारण नशों का सहारा लेकर, मदहोश रहने को ही प्रभु भजन की सँज्ञा देते थे तथा बहुत अभिमानी हो गये थे। भाँग और धतूरा नशों की खुशकी के कारण आपस में बहुत क्रोध करते थे, जिसके फलस्वरूप उनका परस्पर झगड़ा इत्यादि करने का स्वभाव बन गया था। वे लोग अपनी सिद्वियों को जनसाधारण को दिखाकर उनसे अनाज तथा आवश्यक वस्तुएँ दान में प्राप्त करते रहते थे। जब गुरू नानक देव जी से इन लोगों का सामना हुआ तो गुरू जी ने उन लोगों की निम्न स्तर की दशा देखकर बहुत दुःख व्यक्त किया एवँ कहा कि जिन लोगों ने जनता का मार्गदर्शन करना था, वे यहाँ पर्वतों की कन्दराओं में छिपकर मदहोश पड़े हुए हैं। यहाँ तक कि आध्यात्मिक जीवन भी नष्ट कर चुके हैं। क्योंकि अहँ भाव तथा क्रोध यह दो मूलभूत अवगुण, हमें प्रभु चरणों से दूर करते हैं। ऋद्धि-सिद्धि प्राप्त हो जाने से भी जीवन में कोई क्राँति आने वाली नहीं, बल्कि व्यक्ति भटक जाता है, तथा अपना मुख्य उद्देश्य, प्रभु चरणों में लीन होने का मार्ग भी खो देता है। गुरुदेव ने वहाँ पर एक रीठे के वृक्ष के नीचे अपना आसन जमाया तथा भाई मरदाना जी ने अधिक सर्दी के कारण अपने लिए कुछ लकड़ियाँ जंगल से इकट्ठी कर लीं, जिनको जलाकर रात काटी जा सके परन्तु योगियों ने भाई जी को ईर्ष्यावश आग नहीं दी, जिससे वह अपनी धूनी जला सके। उनका विचार था कि ये नये सँन्यासी ना जाने कहाँ से आ गये हैं ? कहीं यहीं हमारे इस क्षेत्र पर कब्ज़ा न कर लें। गुरुदेव ने उनकी नीच प्रतिक्रिया देखकर, भाई जी को दो पत्थर टकराकर अग्नि उत्त्पन्न करके सूखी घास जलाने को कहा। भाई जी ने ऐसा ही किया और वह अपनी धूनी जलाने में सफल हो गये, किन्तु आधी रात को बहुत भयँकर आँधी आई और उसके साथ घनघौर वर्षा हुई। जिस कारण सभी योगियों की धूनियाँ बुझ गईं। केवल प्रभु की कृपा से गुरुदेव जी की धूनी में कुछ अँगारे बचे रहे। जिससे भाई जी ने पुनः अग्नि जला ली। यह देखकर योगी बहुत छटपटाये। वे सोचने लगे कि अब किस मुँह से गुरुदेव जी से आग माँगी जाए, क्योंकि वे पिछली सँध्या को भाई जी को स्वयँ आग देने से इन्कार कर चुके थे। खैर वे मज़बूरी वश गुरुदेव के समक्ष उपस्थित हुए और क्षमा याचना करते हुए आग की भीक्षा माँगने लगे। उदारवादी गुरुदेव जी ने उनकी अवज्ञा को क्षमा करते हुए उन्हें तुरन्त आग दे दी एवँ भाई जी को रबाब बजाकर प्रभु स्तुति में कीर्तन करने का आदेश दिया, राग ‘रामकली’ सिद्ध योगियों का बहुत प्रिय राग है। जब मन पसँद राग में उन्होंने मधूर स्वर में कीर्तन सुना तो वे रह न सके। सभी बारी-बारी गुरुदेव के पास आकर बैठ गये। तब गुरुदेव ने निम्नलिखित वाणी उच्चारण कीः

पूरे गुर ते नामु पाइआ जाइ ।। जोग जुगति सचि रहै समाइ ।।
बारह महि जोगी भरमाए ।। संनिआसी छिअ चारि ।।
सिद्धि गोष्ट राग राम कली, पृष्ठ 941

अर्थः नाम पुरे गुरू द्वारा ही मिलता है सचे प्रभु में लीन रहना ही असल जोग जुगती है। परन्तु जोगी अपने 12 फिरकों के चक्कर में असल निशाने से चुक जाते हैं और सन्यायी लोग अपने 10 फिरकों में अधिक से अधिक साधना में असल निशाने से दूर रहते हैं। यह शब्द सुनकर योगियों के मन में अपने विषय में भाँति-भाँति की शँकाए उत्पन्न हो गई। इसलिए उन को एहसास होने लगा कि वे बहुत गलतियों भरा जीवन जी रहे हैं एवँ सत्य के मार्ग से भटक गये हैं वास्तव में वे मनमानी करके लक्ष्य प्राप्ति से बहुत दूर जा चुके हैं। जिन कर्मों को वे धर्म कहते हैं, वह तो कुकर्म हैं। अतः वे लोग गुरुदेव के समक्ष अपनी शँकाओ के समाधन हेतु निवेदन करने लगे कि, वे उन्हें सफल जीवन की कोई युक्ति बताएँ। गुरुदेव जीः आप लोग सत्य मार्ग से विचलित हो गये हैं, आप लोगों ने जो आडम्बर रच लिया है वह एक मात्र झूठा प्रदर्शन तथा मनमानी है इन बातों का प्रभु आराधना से कोई सम्बन्ध नहीं, केवल वेशभूषा परिवर्तन से जीवन में कोई क्रांति नहीं आती, उसके लिए तृष्णाओं का त्याग अति आवश्यक है। आप स्वयँ इस बात के लिए अपने हृदय में झाँककर देख सकते हैं। आप ने समाधि लगाने के नाम पर यह गलत नशों का जो सहारा लिया है वास्तव में भयँकर कुकर्म हैं। जो कि मनुष्य को अंधे कुएँ में धकेल देता है। यदि वास्तव में योग कमाना चाहते हो तो अपने मन पर नियँत्रण रखकर पूर्ण गुरू के शब्दो की कमाई से ऐसा जीवन बितायें जो कि इच्छाओं रहित हो। यानि आप अपने आपको अस्तित्व विहीन बना लें। जैसे जीते जी मरना। 

नानक जीवतिआ मरि रहीऐ ऐसा जोगु कमाईऐ ।। राग सूही, पृष्ठ 730

अर्थः (जो इन्सान सतगुरू के शब्द द्वारा माया की और से मर के जीता है वो अँहकार से मुक्ति का रास्ता ढुंढ लेता है।)  यह उपदेश सुनकर योगियों को अपनी भूल का एहसास हुआ। परन्तु कुछ एक योगी अपने अहँ भाव में थे वे इतनी जल्दी अपनी पराजय स्वीकार करने को तैयार न थे। इसलिए वे गुरुदेव को उलझाने के लिए भाँति-भाँति के प्रश्न करने लगे। तभी मरदाना जी ने भूख के कारण गुरुदेव के समक्ष भोजन की इच्छा व्यक्त की। गुरुदेव ने मरदाने को कुछ कन्द-मूल खाने को कहा, किन्तु वहाँ पर योगियों ने कुछ भी नहीं छोड़ रखा था। वहाँ की सभी खाद्य वनस्पति उन्होंने अपने पास संग्रह कर ली थी। अतः भाई मरदाना जी भूखे लौट आये। तब गुरुदेव ने मरदाना जी से कहा कि जिस वृक्ष के नीचे हम हैं इसी रीठे के फल सेवन कर अपनी भूख मिटाओ। तब क्या था ! आज्ञा होते ही वह वृक्ष पर झट से चढ़ गये और रीठे खाने लगे। यह देखकर मरदाना जी अति प्रसन्न हुए कि सभी रीठे स्वादिष्ट तथा मीठे थे उन्होंने तुरन्त ही बहुत से रीठे गुरुदेव के लिए भी एकत्र कर लिए और नीचे उत्तरकर उनको भेंट किये तब गुरुदेव ने उन रीठों को प्रसाद के रूप में सभी योगियों में बँटवा दिया। परन्तु योगियों के मन में रीठों के मीठे होने पर शँका थी। अतः उन्होंने एक रीठे का सेवन करके परीक्षण किया वह तो वास्तव में मीठे हो चुके थे। यह आश्चर्य देखकर उन्होंने भी अपने लिए रीठे अन्य वृक्षो से तोड़ लिए किन्तु सब कुछ व्यर्थ था वह तो उसी प्रकार कड़वे थे जिस प्रकार उनको होना चाहिए था। अतः उनका अभिमान चूर-चूर हो गया तथा वे सभी नत-मस्तक होकर प्रणाम करने लगे एवँ अतिथि सत्कार न करने के लिए प्रायश्चित करके क्षमा याचना भी करने लगे। एक वृद्ध अवस्था वाले प्रमुख योगी ने गुरुदेव से आग्रह किया कि वे उनकी सम्प्रदाय के मुख्य महंत जो कि यहाँ से 20 कोस दूर गोरख मता नामक स्थान पर बड़े मठ में विराजमान थे उन से अवश्य भेंट करके उन्हें कृतार्थ करें।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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